संवेगात्मक विकास का अर्थ , संवेगों की विशेषताएँ - Meaning of emotional development, characteristics of emotions | ExamSector
संवेगात्मक विकास का अर्थ , संवेगों की विशेषताएँ – Meaning of emotional development, characteristics of emotions

संवेगात्मक विकास का अर्थ , संवेगों की विशेषताएँ – Meaning of emotional development, characteristics of emotions

Emotional Development in Hindi

संवेगात्मक विकास (Emotional Development)

  • किशोरावस्था गंभीर उथल-पुथल तथा “तूफान और तनाव” की अवस्था हैं। जीवन चक्र के इस पड़ाव में किशोर की ग्रंथियों से होने वाले स्त्रवण के कारण शारीरिक परिवर्तनों के साथ-साथ उनमें संवेगात्मक अस्थिरता व तनाव की स्थिति पैदा हो जाती है। किशोरों के संवेग प्राय: तीव्र, अस्थिर, अनियन्त्रित अभिव्यक्ति वाले तथा विवेक शून्य होते हैं। इस दौरान संवेगात्मक स्थितियाँ उत्पन्न करने वाले उद्दीपनों (Stimulations), संवेग उभाड़ने वाले उद्दीपनों एवं संवेगात्मक अनुक्रियाओं में वर्ष दर वर्ष परिवर्तन आते जाते हैं, फलस्वरूप उनके संवेगात्मक व्यवहार में भी सुधार होता जाता है | यौवनारम्भ में संवेगात्मक अस्थिरता किशोरों में बदलती रुचियों से उत्पन्न उलझन, ग्रंथियों व शारीरिक परिवर्तनों से उत्पन्न बदलाव, स्वयं को शारीरिक दृष्टि से सामान्य से हीन समझने की प्रवृति, स्वयं की योग्यताओं पर संशय या आत्मविश्वास की कमी अर्न्तद्वन्द्द की स्थिति के कारण होती हैं |
  • नवकिशोरों को बहुत कम बातें या वस्तुएँ प्रसन्नता दे पाती हैं । साधारण से साधारण बात भी इन्हें अपनी आलोचना प्रतीत होती है | ये किशोर उदास एवं खिनन रहकर संवेगात्मक अनुक्रियाएँ अभिव्यक्त करते हैं तथा थोड़ी सी उत्तेजना पाकर ही रो पड़ते हैं |
  • जननेन्द्रियों की वृद्धि व परिपक्वता जैसे परिवर्तनों के फलस्वरूप होने वाले संवेदनों एवं गौण लैंगिक लक्षणों के विकास से तरूण बालक का ध्यान लिंग सम्बन्धी बातों की ओर हो जाता है लेकिन उसकी लिंग सम्बन्धी रुचियाँ आत्मनिष्ठ एवं व्यक्तिगत होती हैं। वह इस विषय में किसी से भी बात नहीं कर पाता है | तरूण किशोर अति शर्मिला होता हैं। वह स्वयं के शारीरिक परिवर्तनों के बारे में बहुत सचेत रहता है तथा सामाजिक टीका-टिप्पणी से बचने के लिये वह सामाजिक समारोहों में जाने से बचता है |
  • अब तरूण किशोर के जीवन में बाल्यावस्था के भय के स्थान विविध प्रकार की आकुलताएँ अर्थात् काल्पनिक भय ले लेता है। वह अपना समय दूसरे बच्चों के साथ खेलने या स्कूल या घर के कार्यों की अपेक्षा मनोविलास व दिवास्वणनों में व्यतीत करता है। इन दिवास्वण्नों में वह स्वयं को एक शहीद, माता-पिता, शिक्षक, मित्रों और सामान्य समाज के द्वारा गलत समझा हुआ तथा सताया हुआ पीड़ित नायक के रूप में कल्पित करता है तथा परेशान होता रहता है | बालक जितना अधिक इन दिवास्वननों में खोता जाता है उतना ही वह वास्तविकता से दूर होता जाता है तथा उसका सामाजिक समायोजन पिछड़ता जाता है।
  • उम्र के बढ़ने के साथ-साथ किशोर समस्याओं का सामना कुछ शांत होकर करता है | अब वह अपने संवेगों पर नियंत्रण करने की प्रबल इच्छा रखता है किन्तु फिर भी संवेगात्मक उद्दीपन बने रहते हैं व किशोर इनके प्रति अपनी अनुक्रियाएँ प्रदर्शित करते हैं ।

किशोरावस्था के कुछ प्रमुख संवेग निम्न हैं —

1. क्रोध (Anger) :

  • किशोरावस्था में क्रोध उद्दीप्त करने वाली परिस्थितियाँ अधिकांशत: सामाजिक होती हैं जैसे किशोर को चिढ़ाया जाना, उसका उपहास किया जाना, उसकी आलोचना करना, उसे उपदेश देना, माता पिता या शिक्षक का व्यवहार अनुचित लगना, टोका-टोकी करना या अनुचित दंड देना, उनकी वांछित सुविधाएँ छीन लेना आदि | किशोर द्वारा प्रारंभ किये गये कार्य के भली भाँति पूर्ण न हो पाने या किसी भी ऐच्छिक या नियमित कार्यकलाप में बाधा पड़ने पर भी किशोर क्रोधित हो जाते हैं । क्रोधित होने पर किशोर खिंचा-खिंचा सा रहता है या किसी भी प्रकार की बदमिज़ाज़ी कर सकता है जैसे- अपशब्द कहना, गालियाँ देना, चीजों को पटकना, खाना न खाना, जमीन व दीवार पर लात घूंसे मारकर स्वयं को चोट पहुँचाना, कमरे का दरवाजा बंद करके बैठ जाना, घर से बाहर निकल जाना या रोना चिल््लाना आदि | सामान्यतया किशोर बालक आक्रामक अनुक्रिया करते हैं जबकि किशोरियाँ रोती सुबकती हैं | क्रोध की अनुक्रिया के रूप में बड़े किशोर शारीरिक आक्रमण न कर वाणी का आक्रमण करते जैसे- गाली देना, व्यंग्य कसना, खिल््ली उड़ाना या दूसरों को चिढ़ाने वाले विचित्र व्यवहार करना जैसे दबी सीटी बजाना, मेज पर पट-पट करना आदि।

2. भय (Fear) :

  • किशोरावस्था में आते-आते बाल्यावस्था के भय का स्थान नये-नये भय ले लेते हैं, जैसे अंधेरे में अकेले होने का भय, रात में बाहर अकेले जाने का भय, बहुत से लोगों या अजनबियों के बीच में रहने का भय, विद्यालय में अपने प्रदर्शन (Performance) का भय इत्यादि | भय की अनुक्रिया के रूप में किशोर का शरीर जड़वत होकर पीला पड़ जाता है तथा कंप-कपी व पसीना आने लगता है। लेकिन किशोर अपने डर को छुपाने का प्रयास करता है तथा अपने व्यवहार का औचित्य बताने के लिये बहाने बनाता रहता है।

3.आकुलता (Anxiety) :

  • उम्र के बढ़ने के साथ-साथ भय का स्थान आकुलताएँ ग्रहण करने लगती हैं । वास्तविक चीज़ों या परिस्थितियों की बजाय काल्पनिक वस्तुएं, स्थिति या बातों से गहराने वाला भय ही आकुलता है| किशोरों में आकुलताएँ परीक्षा के परिणाम, समूह के सामने भाषण करने की झिझक, खेल प्रतियोगिताओं में धाक जमाने की इच्छा तथा लोगों की प्रत्याशाओं पर खरा उतरने की आकांक्षा आदि कारणों से होती है । किशोर-किशोरी अपनी लोकप्रियता, प्रतिष्ठा, शादी व किशोर मित्रों को लेकर भी आकुल रहते हैं । अधिकांश आकुलताएँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से असमर्थता की भावनाओं से पैदा होती हैं ।

4. ईर्ष्या (Jealousy) :

  • ईर्ष्या एक शैशवोचित संवेग हैं किन्तु किशोरावस्था में भी यह तीव्र व छिपे हुए रूप में प्रदर्शित होता है। तरूण किशोर की ईर्ष्या उन साथियों से होती है जिन्हें अधिक स्वतंत्रता व सुविधाएं प्राप्त होती हैं या जो शैक्षणिक, खेलकूद या अन्य गतिविधियों में अधिक सफल होते हैं | ईर्ष्यालु किशोर अपनी ईर्ष्या को सूक्ष्म शाब्दिक अनुक्रिया जैसे-व्यंग्यात्मक टीका-टिप्पणी, उपहास या निंदा के रूप में प्रदर्शित करते हैं । किशोरियाँ कभी-कभी ईर्ष्यावश या उपेक्षित महसूस करने पर रोती चिल्लाती हैं। बड़े किशोरों की ईर्ष्या का कारण उनके प्रेमी / प्रेमिका होते हैं जिनसे उन्हें प्रेम व ममत्व हो जाता हैं । साथ ही साथ उनकी भावनाओं के प्रति अनिश्चय का भाव भी रहता है | उन्हें सदैव यह संशय बना रहता हैं कि उनके प्रेमी / प्रेमिका उनकी नजर से ओझल होने पर क्या करते हैं। ऐसी ईर्ष्या की अनुक्रिया वाक-युद्ध के रूप में प्रकट होती है |

5. स्पर्धा (Envy) :

  • स्पर्धा का उद्दीपन व्यक्ति विशेष की वस्तुओं द्वारा होता है। किशोर न केवल यह चाहते है कि उनके पास भी उतनी ही मात्रा में सुविधाएँ जैसे आलीशान घर या बंगला, बढ़िया कार, मंहगे कपड़े, सैल्युलर फोन, प्रतिष्ठा, होटलों में जाने की स्वतंत्रता आदि हो जितनी कि उनके मित्रों के पास है बल्कि वे यह भी चाहते हैं कि उनकी चीजें भी उतनी ही अच्छी हों जितनी कि उनके मित्रों की चीजें हैं। ईर्ष्या की भाँति स्पर्धा की प्रारूपिक प्रतिक्रिया (nitialreaction) भी शाब्दिक होती है । किशोर या तो दूसरों की वस्तुओं की अपनी वस्तुओं से तुलना कर नुक्ताचीनी कर सकता है और उनका मजाक उड़ा सकता है या फिर वह अपनी चीज़ों व सुविधाओं की हीनता की शिकायत अपने माता-पिता से कर सकता है तथा उनके सामने दूसरों की चीजों की उत्कृष्टता को बढ़ा-चढ़ा कर बता सकता है। ये शाब्दिक अभिवृत्तियाँ दूसरों का ध्यान व सहानुभूति प्राप्त करने की कोशिश मात्र हैं। कभी-कभी किशोर इष्ट वस्तुओं की प्राप्ति के लिये आवश्यक पैसा कमाने हेतु नौकरी करते हैं या चोरी का तरीका अपना कर अपनी समस्या को हल कर लेते हैं। इस प्रकार किशोर अपचार (Adolescent delinquency) के पीछे स्पर्धा का भाव ही छुपा रहता है।

6. स्नेह (Affection) :

  • किशोरों का स्नेह उन लोगों पर केन्द्रित होता है जिनके साथ उनका सुखद संबंध हो और जिनसे उन्हें भरपूर प्यार व सुरक्षा का अहसास हो | बड़े किशोरों का स्नेह एक बार में एक ही व्यक्ति, विशेष रूप से विषमलिंगीय व्यक्ति के ऊपर केंद्रित होता है। इस अवस्था का स्नेह एक आत्मसात करने वाला संवेग है जो किशोर / किशोरी को बराबर उस व्यक्ति या उन व्यक्तियों के साथ रहने के लिये प्रेरित करता है जिनके प्रति उसका स्नेह सबसे प्रगाढ़ होता है | वह अपने स्नेह के पात्र को एकाग्रचित होकर देखता है, उसकी बात T होकर सुनता है व उसकी उपस्थिति में बराबर मुस्कुराता रहता है |

7. हर्ष (joy) :

  • हर्ष हल्के रूप में प्रसन्नता या सुख है जो कि एक सामान्य संवेगात्मक अवस्था है| किशोर को हर्ष तब होता है जब वह सफलतापूर्वक अपना कार्य सम्पन्न कर लेता है, समाज के लोगों व सामाजिक परिस्थितियों से अच्छा सामंजस्य बिठा लेता है, विविध सामाजिक परिस्थितियों में स्वयं को श्रेष्ठ महसूस करता है या फिर किसी भी परिस्थिति के हास्यास्पद पहलू को देख पाता है। हर्ष की लाक्षणिक अनुक्रिया के रूप में मुस्कुराने की प्रवृत्ति होती है व कभी-कभी मुस्कुराहट के बाद हँसना भी होता है। लड़कियाँ हर्ष से प्राय: खिलखिलाती हैं जबकि लड़के अट्टहास करते 8 | हर्ष की अभिव्यक्ति से किशोरों द्वारा रोके गये अप्रिय संवेगों जैसे क्रोध, भय व ईर्ष्या आदि से उन्मुक्त होने का अवसर मिलता है।

8. जिज्ञासा (Curiosity) :

  • किशोरों की स्वाभाविक जिज्ञासाएँ बाहरी प्रतिबंधों में दब चुकी होती हैं । अब उनकी जिज्ञासाएँ स्वयं में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों, काम संबंधी विषयों व स्त्री-पुरूष के संबंधों को लेकर होती हैं | विद्यालयों में शिक्षण के दौरान मिलने वाले नये-नये विषय व समाज में मिलने वाले नये-नये लोगों के प्रति भी किशोर जिज्ञासु होते हैं ।
  • आपने पढ़ा कि किशोरावस्था संवेगात्मक व्यवहार के संबंध में “तूफान व तनाव” की अवस्था है, फिर भी बड़े होते-होते किशोर अपने संवेगों पर नियंत्रण रखना सीख लेता है। किशोरावस्था के अंत तक वह दूसरों की उपस्थिति में अपने संवेगों का विस्फोट नहीं होने देता तथा अपने संवेगों को किसी सामाजिक रूप से मान्य तरीके से निकालने के लिये उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करता है । इस अवस्था में संवेगों का नियंत्रण इतना अधिक भी नहीं किया जाना चाहिये कि किशोर अधीर, चिड़चिड़ा एवं क्रोधी हो जाये बल्कि समय-समय पर सामाजिक स्वीकार्यता के अनुरूप सांवेगिक अनुक्रियाएँ जैसे खेल, नृत्य-गान आदि की प्रतियोगिताएँ होती रहनी चाहिये जिससे वह एक सामान्य जीवन व्यतीत कर सके |

Important Point :

  1. किशोरावस्था में ग्रंथियों से होने वाले स्त्रवण के कारण शारीरिक परिवर्तनों के साथ-साथ संवेगात्मक अस्थिरता व तनाव की स्थिति पैदा हो जाती है।
  2. भय, ईर्ष्या, आकुलता, स्पर्धा, स्नेह, हर्ष, जिज्ञासा, क्रोध आदि इस अवस्था के संवेग हैं ।
  3. किशोरावस्था में संवेग प्रायः तीव्र, अस्थिर, अनियंत्रित अभिव्यक्ति वाले तथा विवेक शून्य होते हैं |
  4. नवकिशोर लिंग संबंधी बातों की ओर आकर्षित हो जाता है किंतु वह अति शर्मिला होता है|
  5. तरूण किशोर के जीवन में बाल्यावस्था के भय का स्थान आकुलताएँ ले लेती हैं । वह अकेला रहकर दिवास्वप्नों में खोया रहना पसंद करता है।
  6. पूर्व किशोरावस्था में संवेगों का प्रदर्शन स्वयं को चोट पहुँचाकर, वस्तुओं को तोड़-फोड़ कर आदि आक्रमक क्रियाओं द्वारा किया जाता है जबकि उत्तर किशोरावस्था में संवेग वाणी के आक्रमण यानि गाली गलौच, व्यंग्य, मजाक उडाना या चिढ़ाना आदि द्वारा प्रदर्शित किये जाते हैं ।

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