राजस्थान का साहित्य

राजस्थानी साहित्य (Rajasthani Literature)

( राजस्थान का साहित्य ) Rajasthan Ka Sahitya Notes

  • राजस्थानी प्रदेश का देश के इतिहास एवं सांस्कृतिक वैभव में महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ के संघर्षशील निवासियों ने शताब्दियों से भारतीय संस्कृति, कला एवं साहित्य में अक्षुण्ण योगदान दिया है। यहाँ के लोगों ने अपनी कलात्मक रचनाओं के माध्यम से अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाये रखने का महती कार्य किया है। इस भूमि का प्राचीन साहित्यिक गौरव अन्य किसी भी प्रांतीय भाषा के साहित्यिक गौरव से कम नहीं है। सम्पूर्ण राजस्थानी साहित्य को चार मुख्य भागों में बाँटा जा सकता है
  1. जैन साहित्य
  2. चारण साहित्य
  3. ब्राह्मण साहित्य 
  4. संत साहित्य 
  5. लोक साहित्य।

जैन साहित्य – जैन धर्मावलम्बियों यथा- जैन आचार्यों, मुनियों, यतियों एवं श्रावकों तथा जैन धर्म से प्रभावित साहित्यकारों द्वारा वृहद् मात्रा में रचा गया साहित्य जैन साहित्य कहलाता है। यह साहित्य विभिन्न प्राचीन मंदिरों के ग्रन्थागारों में विपुल मात्रा में संग्रहित है। यह साहित्य धार्मिक साहित्य है जो गद्य एवं पद्य दोनों में उपलब्ध होता है।

चारण साहित्य – राजस्थान की चारण, भाट, ढाढी आदि विरुद गायक जातियों द्वारा रचित अन्याय कृतियों को सम्मिलित रूप से चारण साहित्य कहते हैं। चारण साहित्य मुख्यतः पद्य में रचा गया है। इसमें वीर रसात्मक कृतियों का बाहुल्य है।

ब्राह्मण साहित्य – राजस्थानी साहित्य में ब्राह्मण साहित्य अपेक्षाकृत कम मात्रा में उपलब्ध होता है। कान्हड़दे प्रबन्ध, हम्मीरायण, बीसलदेव रासौ, रणमल छंद आदि प्रमुख ग्रन्थ इस श्रेणी के ग्रन्थ हैं।

संत साहित्य – मध्यकाल में भक्ति आन्दोलन की धारा में राजस्थान की शांत एवं सौम्य जलवायु में इस भू-भाग पर अनेक निर्गुणी एवं सगुणी संत-महात्माओं का आविर्भाव हुआ। इन उदारमना संतों ने ईश्वर भक्ति में एवं जन-सामान्य के कल्याणार्थ विपुल साहित्य की रचना यहाँ की लोक भाषा में की है। संत साहित्य अधिकांशतः पद्यमय ही है।

लोक साहित्य – राजस्थानी साहित्य में सामान्यजन द्वारा प्रचलित लोक शैली में रचे गये साहित्य की भी अपार थाती विद्यमान है। यह साहित्य लोक गाथाओं, लोकनाट्यों, प्रेमाख्यानों, कहावतों, पहेलियों एवं लोक गीतों के रूप में विद्यमान है। 

राजस्थानी साहित्य गद्य एवं पद्य दोनों में रचा गया है। इसका लेखन मुख्यतः निम्न विधाओं में किया गया है:-

  1. ख्यात – राजस्थानी साहित्य के इतिहासपरक ग्रन्थ, जिनकी रचना तत्कालीन शासकों ने अपनी मान-मर्यादा एवं वंशावली के चित्रण हेतु करवाई ‘ख्यात’ कहलाते हैं। मुहणोत नैणसी री ख्यात, दयालदास की बीकानेर रां राठौड़ा री ख्यात आदि प्रसिद्ध हैं।
  2. वंशावली – इस श्रेणी की रचनाओं में राजवंशों की वंशावलियाँ विस्तृत विवरण सहित लिखी गई हैं, जैसे राठौड़ारी वंशावली, रजपूतों री वंशावली आदि।
  3. वात – वात का अर्थ कथा या कहानी से है। राजस्थान में ऐतिहासिक, पौराणिक, प्रेम परक एवं काल्पनिक कथानकों पर वात साहित्य अपार है।
  4. प्रकास – किसी वंश अथवा व्यक्ति विशेष की उपलब्धियों या घटना विशेष पर प्रकाश डालने वाली कृतियाँ प्रकास’ कहलाती हैं। राजप्रकास, पाबू प्रकास, उदय प्रकास आदि इनके मुख्य उदाहरण हैं। 5. वनिका – यह एक गद्य-पद्य तुकान्त रचना होती है, जिसमें अन्त्यानुप्रास मिलता है। राजस्थानी साहित्य में अचलदास खींची री वचनिका एवं राठौड़ रतनसिंह जी महेस दासोत री वचनिका प्रमुख हैं। वचनिका मुख्यतः अपभ्रंश मिश्रित राजस्थानी में लिखी हुई हैं।
  5. मरस्या – राजा या किसी व्यक्ति विशेष को मृत्योपरांत शोक व्यक्त करने के लिए रचित काव्य, जिसमें उस व्यक्ति के चारित्रिक गुणों के अलावा अन्य क्रिया-कलापों का वर्णन किया जाता है।
  6. दवावैत – यह उर्दू-फारसी की शब्दावली से युक्त राजस्थानी कलात्मक लेखन शैली है, जिसमें किसी की प्रशंसा दोहों के रूप में की जाती है।
  7. रासौ – राजाओं की प्रशंसा में लिखे गए काव्य ग्रन्थ, जिनमें उनके युद्ध अभियानों व वीरतापूर्ण कृत्यों के विवरण के साथ-साथ उनके राजवंश का विवरण भी मिलता है। बीसलदेव रासौ, पृथ्वीराज रासौ आदि मुख्य रासौ ग्रंथ हैं।
  8. वेलि – राजस्थानी वेलि साहित्य में यहाँ के शासकों एवं सामन्तों की वीरता, इतिहास, विद्वता, उदारता, प्रेम-भावना, स्वामिभक्ति, वंशावली आदि घटनाओं का उल्लेख होता है। पृथ्वीराज राठौड़ लिखित ‘वेलि किसन रुक्मणि री’ प्रसिद्ध वेलि ग्रन्थ है।
  9. विगत – यह भी इतिहास परक ग्रन्थ लेखन की शैली है। ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ इस शैली की प्रमुख रचना है।

राजस्थानी साहित्य की विशेषताएँ :- 

(1) राजस्थानी साहित्य गद्य-पद्य की विशिष्ट लोकपरक शैलियों यथा- ख्यात, वात, वेलि, ‘वचनिका, दवावैत आदि रूपों में रचा गया है।

(2) राजस्थानी साहित्य में वीर रस एवं शृंगार रस का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। यहाँ के कवि कलम एवं तलवार के धनी रहे, अतः इन्होंने इन दोनों विरोधाभासी रसों का अद्भुत समन्वय अपने साहित्य लेखन में किया है।

(3) जीवन आदर्शों एवं जीवन मूल्यों का पोषण राजस्थानी साहित्य में मातृभूमि के प्रति दिव्य प्रेम, स्वामिभक्ति, स्वाभिमान, स्वधर्मनिष्ठा, शरणागत की रक्षा, नारी के शील की रक्षा आदि जीवन मूल्यों एवं आदर्शों को पर्याप्त महत्त्व दिया गया है।  


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