राजस्थान की प्रमुख जनजातियाँ

राजस्थान की प्रमुख जनजातियों का सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक जीवन

राजस्थान की प्रमुख जनजातियाँ ( rajasthan ki pramukh janjatiya )

भील जनजाति

  • राजस्थान की दूसरी सबसे बड़ी जनजाति (प्रथम मीणा)।
  • भील शब्द ‘द्रविड़ भाषा के ‘बिल’ शब्द का अपभ्रंश है, बिल का शाब्दिक अर्थ है-‘तीर-कमान’।
  • राजस्थान में भील जनजाति उदयपुर (सर्वाधिक), बाँसवाड़ा, प्रतापगढ़, डूंगरपुर, भीलवाड़ा, सिरोही इत्यादि जिलों में निवास करती है।
  • भीलों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में डॉ. मजूमदार इनका सम्बन्ध नेग्रिटो प्रजाति से मानते हैं, वहीं मानवशास्त्री इनकी भाषा में ‘मुंडारी शब्द की बहुलता के क ! मुंडा जाति का वंशज मानते हैं।
  • कर्नल टॉड ने भीलों को ‘वनपुत्र‘ कहा है।
  • भील वीर, साहसी एवं निडर, स्वामीभक्त एवं शपथ के पक्के होते हैं। ये लोग केसरियानाथ (ऋषभदेव) को चढ़ी केसर का पानी पीकर कभी झूठ नहीं बोलते हैं।
  • भीलों में जातिगत एकता बहुत है, ढोल बजते या किलकारी सुनते ही ये लोग शस्त्र लेकर एक जगह पर एकत्रित हो जाते हैं। ‘फाइरे फाइरे’ भीलों का रणघोष है।
  • भीलों का घर ‘कू’ (Koo) कहलाता है।
  • भीलों का मोहल्ला फलां तथा बहुत से झोपड़े मिलकर ‘पाल’ कहलाते हैं। पाल का मुखिया ‘पालवी’ कहलाता है।
  • भीलों के गाँव का मुखिया ‘तदवी’ या ‘वंशाओ’ कहलाता है जबकि भीलों की पंचायत (निकटवर्ती गाँवों) का मुखिया ‘गमेती’ कहलाता है।
  • मार्गदर्शक भील को ‘बोलावा’ व सैनिक के घोड़े को मारने वाला भील ‘पाखरिया’ कहलाता है।
  • भीलों द्वारा दिया जाने वाला मृत्युभोज कायटा (काट्टा) कहलाता है।
  • माता-पिता द्वारा तय विवाह सम्बन्धों में मध्यस्ता करने वाले फूफा या मामा ‘बडालिया’ कहलाते हैं।
  • ‘पाडा’ शब्द सुनकर भील खुश होते हैं, जबकि ‘कांडी’ (अर्थात् बाण चलाने वाला) शब्द को गाली मानते हैं।
  • भीलों की गोत्र ‘अटक’ कहलाती है।
  • भीलों का कुल देवता ‘टोटम’ कहलाता है, वैसे ये लोग हिन्दूवादी हैं। से भीलों के भोजन में ‘मक्का की रोटी’ तथा ‘कांदों (प्याज) का भात’ मुख्य होता है। ये महुआ की बनी शराब व ताड़ का रस पीने के शौकीन होते हैं।
  • वेशभूषा – वस्त्रों के आधार पर भीलों के दो वर्ग-लंगोटिया व पोतीदा है। लंगोटिया भील पुरुष ‘खोयतु’ (कमर में लंगोटी) व भील स्त्रियाँ कछावू’ (घुटनों तक का घाघरा) पहनती हैं। पोतीद्दा भील धोती, बण्डी (बनियान), फालू (कमर का अंगोछा) पहनते हैं। भील पुरुष प्राय: कुर्ता या अंगरखी तथा तंग धोती (ढेपाड़ा) पहनते हैं। सिर पर पोत्या (साफा) बांधते हैं।
  • आभूषण – भील स्त्रियाँ गले में चाँदी की हंसली या चैन, सिर पर बोट (बोर), कानों में चांदी की बालियाँ, नाक में नथ, हाथों में छल्ले तथा पाँवों में कड़ले (कड़े) व पैजनियाँ पहनती हैं।
  • आजीविका – भीलों की मुख्य आजीविका कृषि व वनोपज है। भील पहाड़ी भागों में वनों को जलाकर प्राप्त भूमि में कृषि करते हैं उसे ‘चिमाता’ तथा मैदानी भागों में वन काटकर प्राप्त भूमि में कार्य करते हैं उसे ‘दजिया’ कहते हैं।
  • भीलों में तलाक प्रायः गाँव के मुखिया की उपस्थिति में होता है जिसे ‘छेड़ा फाड़ना’ कहते हैं।
  • जी.एस. थॉम्पसन ने 1895 में ‘भीली व्याकरण’ लिखी, जिसमें भीलों की विभिन्न बोलियों एवं उच्चारण सम्बन्धी जानकारी मिलती हैं।
  • भीलों द्वारा पूर्वजों की मूर्ति स्थापित कर उनकी मृत आत्माओं की पूजा की जाती है, जिसे ‘सिरा-चौकली’ (चिरा बावसी) कहते हैं।

मीणा जनजाति

  • मीणा राज्य की सबसे बड़ी व देश की अति प्राचीन जनजाति है जिसका उल्लेख मत्स्य पुराण में भी मिलता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इन्हें ‘मत्स्यावतार’ का रूप माना जाता है। (मीणा पुराण-मुनि मगनसागर)
  • मीणा का शाब्दिक अर्थ ‘मत्स्य’ या ‘मीन’ (मछली) है।
  • जयपुर में कच्छवाह वंश का शासन प्रारम्भ होने से पूर्व आमेर में मीणाओं का शासन था, जिन्हें हराकर दुल्हेराय ने आमेर पर अधिकार किया। माता-पिता द्वारा तय विवाह सम्बन्धों में मध्यस्थता करने वाले फूफा या मामा ‘बडालिया’ कहलाते हैं।
  • मीणा जनजाति में ‘लीला मोरिया’ संस्कार प्रचलित है जिसका सम्बन्ध विवाह से है।
  • मीणा जनजाति की लगभग आधी से अधिक जनसंख्या जयपुर, दौसा, सवाईमाधोपुर, करौली व उदयपुर जिलों में निवास करती है।
  • मीणा जनजाति में दो वर्ग हैं जमींदार मीणा (कृषि कार्य), व चौकीदार मीणा (चौकीदारी का कार्य)।
  • मीणा जनजाति 24 खांपों में बटी हुई है जबकि मुनि मगरसागर की मीणा पुराण के अनुसार 5200 खाँपें बताई जाती हैं।
  • सामाजिक जीवन – संयुक्त एवं पितृसत्तात्मक परिवार प्रचलित हैं। इनमें बहिन के पति का अत्यधिक सत्कार किया जाता है। इनमें विवाह विच्छेद प्रक्रिया (तलाक) सरल है जिसमें पति, पत्नी के दुपट्टे का कुछ भाग काटकर उसके हाथ में दे देता है। मीणा जाति की पंचायत महिला को भगाकर ले जाने वाले पुरुष से मुआवजे की राशि वसूलती है, जिसे ‘झगड़ा राशि’ कहते हैं।
  • मीणा जनजाति शक्ति की उपासक हैं अतः दुर्गा माता की पूजा अर्चना करते हैं। मीणाओं का कुल देवता ‘बुझ देवता’ कहलाता है। (भीलों का टोटम)
  • आजीविका – मीणाओं की आजीविका का मुख्य साधन कृषि है। मीणा जनजाति में बँटाईदार कृषि व्यवस्था का प्रचलन है। इसमें छोटा बट्ट (केवल भूमि दी जाती है और 1/4 हिस्सा लिया जाता है), हाडी बट्ट (भूमि मालिक राजस्व, सिंचाई बीज की व्यवस्था करता है तथा 1/2 हिस्सा लिया जाता है तथा हासिल बट्ट (केवल भूमि व राजस्व देता है तथा 1/3 हिस्सा लिया जाता है) प्रचलित है।
  • देश की सभी जनजातियों में मीणाओं ने स्वतंत्रता के पश्चात् अत्यन्त प्रगति की है तथा युवक-युवतियों में शिक्षा का प्रचलन बढ़ रहा है।

गरासिया जनजाति

  • जनसंख्या की दृष्टि से राजस्थान की प्रथम मीणा, द्वितीय भील एवं तीसरी सबसे बड़ी जनजाति ‘गरासिया’ है।
  • गरासिया जनजाति को चौहान राजपूतों का वंशज माना जाता है।
  • जिनका मूल स्थान बड़ौदा (गुजरात) के निकट चैनपारीन क्षेत्र है।
  • ‘गरासिया’ जनजाति सिरोही व उदयपुर जिलों में निवास करती है।
  • कर्नल जेम्स टॉड ने गरासियों की उत्पत्ति ‘गवास’ शब्द से मानी है जिसका अभिप्राय ‘सर्वेन्ट’ है।
  • सामाजिक जीवन — पितृसत्तात्मक व पितृवंशीय परिवार, पिता सर्वोच्च व मुखिया होता है। विवाह एक संविदा माना जाता है जिसका आधार वधूमूल्य होता है। गरासियों में विवाह के तीन प्रकार हैं !
  • 1. ताणना विवाह (तारणा विवाह) – वर पक्ष पंचों द्वारा तय मूल्य पंचों को वैवाहिक भेंट के रूप में चुकाकर वर द्वारा पसंद कन्या को घर ले आते हैं।
  • 2. मौरबंधियाँ विवाह – वर-वधू के मौर (मोड़) बाँधकर चौरी (चंवरी) में फेरे लेकर किया गया विवाह। यह ब्रह्म विवाह _के समान हैं।
  • 3. पहरावना विवाह – बिना ब्राह्मण के नाम मात्र के फेरे होते है।
  • गरासियों में विधवा विवाह व अट्टा-सट्टा (विनिमय विवाह) का का प्रचलन है। गरासियों का घर ‘घेर’ कहलाता है। गाँवों में सबसे छोटी इकाई ‘फालिया’ कहलाती है।
  • गरासिया जनजाति के किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर बनाए जाने वाले स्मारक ‘हुरे’ कहलाते हैं। मृत्यु की सूचना ढोल बजाकर दी जाती है।
  • गरासिया जनजाति का मुखिया ‘सहलोत’ कहलाता है।
  • गरासियों के अनाज भण्डारण की कोठियाँ ‘सोहरी’ कहलाती हैं।
  • ‘मोर’ को आदर्श पक्षी मानते हैं व सफेद पशुओं को पवित्र मानते हैं।
  • गरासिया लोग ‘अक्षय तृतीया’ को नववर्ष के रूप में मनाते हैं।
  • गरासिया सामाजिक दृष्टि से तीन भागों में विभाजित होते हैं-मोटी नियात (वाबोर हाइया), नेमकी नियात (माडेरिया), निचली नियात (निम्न श्रेणी) में विभाजित है।
  • गरासियों की पंचायत बूढ़ों की परिषद कहलाती है जिसका प्रधान गाँव का मुखिया होता है।
  • धार्मिक जीवन – शिव, भैरव व दुर्गा के उपासक व अंधविश्वासी होते हैं। मृत्यु के 12वें दिन शव का अंतिम संस्कार करते हैं। गणगौर व होली मुख्य त्यौहार, त्यौहारों का प्रारम्भ आखातीज से होता है
  • गरासियों का सबसे बड़ा मेला मनखो रो मेलो (आम आदमी का मेला) कहलाता है जो सियावा (आबूरोड) में भरता है। अन्य स्थानीय मेले व संभागीय मेले भी भरते हैं। गरासिया जनजाति नक्की झील (माउण्ट आबू) को पवित्र मानते हैं, तथा अपने पर्वजों का अस्थि विसर्जन यहीं करते हैं।
  • आजीविका – गरासिया जनजाति प्रकृति प्रेमी होती है, कृषि व पशुपालन इनका मुख्य व्यवसाय है। इसके अलावा लकड़ी काटकर मजदूरी करके जीवन यापन करते हैं। आबू पिण्डवाड़ा क्षेत्र (सिरोही) के गरासिया वनोपज (फल, कंद मूल, औषधि) इकट्ठी करके निकटवर्ती नगरों माउण्ट आबू, आबू रोड एवं पिण्डवाड़ा के बाजारों में बेचते हैं।
  • वेशभूषा व आभूषण – गरासिया पुरुष धोती, अंगरखी, बंडी, पुठियो (कमीज), झूलकी पहनते हैं। ये वस्त्रों पर कशीदाकारी को विशेष पसंद करते हैं। ये गले में हंसली, हाथों में कड़ले (कड़े), भाटली, कानों में मुरकियाँ, लुंग, झेला, तंगल इत्यादि आभूषण पहनते हैं। गरासिया महिला काँच जड़ा हुआ घाघरा, झूलकी, कुर्ती, कांचली पहनती हैं। महिलाएँ कानों में डोरणे, लटकन, मसियाँ, गले में हंसली, वाडळे, बोरली, सिर पर बोर, झेला नाक में कोटा, नथ (नथड़ी), पैरों में कड़े पहनती हैं ।

सहरिया जनजाति

  • सहरिया शब्द की उत्पत्ति फारसी शब्द ‘सहर’ से हुई जिसका अर्थ जंगल या वन में निवास करने वाले लोग होता है।
  • भारत सरकार द्वारा आदिम जाति समूह में शामिल राजस्थान की एकमात्र जनजाति, जो राजस्थान के बारां जिले की शाहबाद व किशनगंज तहसीलों में निवास करती हैं।
  • सामाजिक जीवन-सहरियों का घासफूस से बना घर ‘टापरा’ कहलाता है। ये पेड़ों या बल्लियों पर मचाननुमा झोपड़ी बनाकर भी रहते हैं जो गोपना, कोरूआ या टोपा कहलाती हैं।
  • सहरिया जनजाति की बस्ती ‘सहराना’ तथा गाँव ‘सहरोल’ कहलाते हैं। सहरिया जाति का मुखिया कोतवाल’ कहलाता है। विवाह का आधार वधू मूल्य होता है। नाता प्रथा भी प्रचलित है।
  • ये लोग अपराध प्रवृत्ति से दूर संतोषी प्रकृति के होते हैं जो भीख कभी नहीं माँगते हैं।
  • ‘पंचताई’, ‘एक दसिया’ व ‘चौरासिया’ सहरिया समुदाय की पंचायतों के स्तर हैं। सहरिया जनजाति की महिलाएं गोदना गुदवाती हैं लेकिन पुरुषों में गोदना वर्जित है।
  • धार्मिक जीवन – तेजाजी सहरियों के लोक देवता होते हैं जिसका थान (देवरा) सहराना (बस्ती) के बाहर होता है।
  • सहरिया जनजाति की कुलदेवी-कोडिया देवी’ हैं।
  • सहरियों का कुम्भ सीताबाड़ी का ‘कपिलधारा का मेला’ कहलाता है, यह मेला बारां जिले में केलवाड़ा के निकट सीताबाड़ी में कार्तिक पूर्णिमा को भरता है। सहरिया जनजाति आदि गुरु वाल्मीकि को अपना आराध्य देवता मानती है, सीताबाड़ी में वाल्मीकि आश्रम व वाल्मीकि मन्दिर को एहरिया सबसे बड़ा तीर्थ स्थल मानते हैं।
  • आजीविका – कृषि, मजदूरी, लकड़ी व वनोपज एकत्रित करना इनकी जीविका के मुख्य साधन हैं।
  • वेशभूषा-सहरिया पुरुष विशेष प्रकार की अंगरखी पहनते हैं, जो ‘सलूका’ कहलाता है तथा घुटनों तक की तंग धोती पहनते हैं, जो ‘पंछा’ कहलाती है तथा सिर पर खपटा (साफा) बाँधते हैं। सहरिया स्त्रियाँ एक विशेष वस्त्र रेजा’ पहनती हैं।
  • सहरिया स्त्री-पुरुष सामूहिक नृत्य नहीं करते हैं।

सांसी जनजाति

  • राजस्थान के भरतपुर जिले में खानाबदोश जीवन व्यतीत करने वाली सांसी जनजाति की उत्पत्ति सांसमल नामक व्यक्ति से मानी जाती है। सांसी जनजाति की दो उपजातियाँ बीजा व माला हैं।
  • सांसी जनजाति में सगाई की रस्म नारियल के गोले के आदानप्रदान से सम्पन्न होती है। इनमें जनजाति में विधवा विवाह प्रचलित नहीं है।
  • ये लोग बरगद, नीम, पीपल आदि वृक्षों की पूजा करते हैं।
  • ये मांस व शराब के शौकीन होते हैं, लोमड़ी का माँस पसंद करते हैं।
  • आजीविका–सांसी लोग खानाबदोश जीवन व्यतीत करते हैं अत: स्थायी व्यवसाय नहीं करते। छोटे-छोटे हस्तशिल्प निर्माण का कार्य भी करते हैं।

डामोर जनजाति

  • डामोर जनजाति दूंगरपुर जिले की सीमलवाड़ा पंचायत समिति तथा बाँसवाड़ा जिले के गुजरात सीमा से लगे इलाकों में निवास करती है।
  • डामोर जनजाति का मुखिया ‘मुखी’ कहलाता है। गाँव की सबसे छोटी इकाई फलां (एक गोत्र समूह) कहलाती है। फलां का नामकरण पूर्वजों के नाम के आधार पर होता है।
  • डामोर जनजाति में विवाह का आधार वधू मूल्य होता है, वध मल्य चुकाकर वह एक से अधिक कितने भी विवाह (बहविवाह) कर सकता है।
  • डामोर जनजाति के पुरुष भी स्त्रियों के समान ही गहने पहनने के शौकीन होते हैं।
  • डामोर जनजाति के महत्त्वपूर्ण मेले ‘छेला बावजी का मेला’ (पंचमहल, गुजरात) तथा ‘ग्यारस की रैवाड़ी का मेला’ (डूंगरपुर शहर) है।
  • इनका मुख्य व्यवसाय कृषि है। यह ऐसी जनजाति है जो वनों पर आश्रित नहीं रही है।
  • डामोर जनजाति द्वारा दीपावली पर पशुओं की पूजा की जाती है।

कथौड़ी जनजाति

  • महाराष्ट्र राज्य के मूल निवासी इस जनजाति के लोग उदयपुर जिले की कोटड़ा, झाड़ोल एवं सराड़ा पंचायत समिति क्षेत्र में निवास करते हैं।
  • उदयपुर के एक बोहरा ठेकेदार ने बाँस कटवाने व खैर का कत्था तैयार करवाने के लिए निपुण इस जनजाति के कुछ परिवारों को महाराष्ट्र से उदयपुर में लाकर बसाया। कत्था तैयार करने का कार्य करने के कारण यह ‘कथौड़ी’ कहलाये।
  • महाराष्ट्र से आने के बाद लगभग 50 वर्षों तक कत्थे का कार्य होता रहा जिससे इनकी आजीविका चलती रही लेकिन कालान्तर में यह कार्य बंद हो जाने पर इन लोगों ने वनोपज को अपनी आजीविका – का आधार बनाया।
  • कथौड़ी जनजाति के लोग नाममात्र के कपड़े पहनते हैं। पुरुष केवल लंगोट पहनते हैं व स्त्रियाँ कमर पर फड़का (मराठी अंदाज में साड़ी) पहनती हैं।
  • शराब इनका अत्यधिक प्रिय पेय पदार्थ है महुए की शराब बनाकर पीते हैं। स्त्रियाँ भी पुरुषों के समान शराब पीती हैं।
  • शव को दफनाने का रिवाज़ है तथा 12 दिन तक शोक रखते हैं।
  • कथौड़ी जनजाति में घास-फूस व बाँस का बना छोटा झोंपड़ा ‘खोलरा’ कहलाता है।

कथौड़ी जनजाति के लोकनृत्य

  • मावलिया-नवरात्रा में नौ दिन तक किया जाने वाला विशुद्ध पुरुष नृत्य, इसमें दस-बारह पुरुष ढोलक, टापरा, बांसली की लय पर देवी-देवताओं के गीत गाते हुए गोल-गोल घूमकर नृत्य करते हैं।
  • होली नृत्य (गैर नृत्य)-होली के अवसर पर किया जाने वाला महिला नृत्य । इसमें स्त्रियाँ एक-दूसरे का हाथ पकड़कर गीत गाते हुए नृत्य करती हैं तथा नृत्य के दौरान पिरामिड बनती हैं। इसमें पुरुष ढोलक, पावरी, घोरिया व बांसली पर संगत करते हैं।

कथौड़ी लोक वाद्य

  • कथौड़ी वन व प्रकृति के बीच रहते हैं तथा प्राकृतिक उत्पादों से लोक वाद्य यंत्रों को स्वयं तैयार करते हैं जो निम्न हैं
  • तारपी-महाराष्ट्र के प्रसिद्ध लोक वाद्य तारपा से मिलता-जुलता लोकवाद्य जिसे लौकी के एक सिरे पर छेद करके उसमें से गूदा निकालकर व सुखाकर इसके एक सिरे पर भैंस का सींग बीच मे – बांस डालकर बजाया जाता है।
  • टापरा – बांस का बना दो फीट लम्बा वाद्य यंत्र, जिसमें बांस के एक सिरे को तिकोना काटा जाता है व दूसरे सिरे को चीरकर झाडू के सींक के समान बनाया जाता है। 
  • पावरी-बांस का बना साढ़े तीन फीट लम्बा वाद्य यंत्र है जिसके 16 छिद्र होते हैं, इसे मावलिया मृत्यु के समय बजाते हैं।
  • थालीसर – पीतल की थाली के समान वाद्य यंत्र जिसके बीच में एक बाँस की छड़ लगाकर बनाया जाता है। इसे देवी-देवताओं की प्रार्थना के समय तथा मृतक के अंतिम संस्कार के बाद गीत के साथ बजाते हैं।
  • धोरिया (खोखरा) –-बांस की सहायता से बना एक वाद्य यंत्र।

कंजर जनजाति

  • कंजर’ शब्द संस्कृत भाषा के शब्द ‘काननचार’ का अपभ्रंश है। काननचार से तात्पर्य है-जंगल में विचरण करने वाला।
  • अपराध वृत्ति के लिए कुख्यात यह जनजाति राजस्थान में कोटा, बारां, बूंदी, झालावाड़, भीलवाड़ा, उदयपुर, अलवर एवं अजमेर जिलों में निवास करती है।
  • कंजर सामान्य कद-काठी के होते हैं। कंजर महिलाएँ सुंदर होती हैं लेकिन गंदी रहती हैं तथा नाचने-गाने में प्रवीण होती है।
  • जातिगत एकता की भावना इनकी मुख्य सामाजिक विशेषता है।
  • कंजर जाति का मुखिया पटेल कहलाता है।
  • ‘हाकम राजा का प्याला’ पीकर कसम खाने के बाद कंजर जो भी बात करता है वह सच्ची होती है।
  • मरते समय व्यक्ति के मुँह में शराब की बूंदें डालने व शव को गाड़ने का रिवाज है।
  • मांसाहारी व शराब प्रिय इस जनजाति को ‘मोर’ का मांस प्रिय में होता है। लेकिन मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित करने तथा कुछ
  • सरकारी प्रयासों से इनकी प्रवृत्ति में सुधार हआ है।
  • ‘कंजर’ जनजाति के घरों में दरवाजे नहीं होते हैं तथा पिछवाड़े में एक खिड़की अवश्य होती है, जिसका उपयोग वह गिरफ्तारी से बचने के लिए भागने हेतु करते हैं।
  • हनुमानजी’ व ‘चौथमाता’ इनके आराध्य देव हैं। है 
  • कंजर जनजाति की आजीविका का साधन चोरी, डकैती, लूटमार है। ये लोग यह कार्य करने से पूर्व ईश्वर का आशीर्वाद लेते हैं जिसे ‘पाती मांगना’ कहते हैं।

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