किशोरावस्था (Kishoravastha Adolescence in Hindi)

किशोरावस्था (Adolescence in Hindi)

किशोरावस्था (Adolescence)

Kishoravastha Adolescence in Hindi

  • किशोरावस्था बाल्यावस्था के पश्चात् आने वाली वह अवस्था है जो युवावस्था के प्रारंभ होने तक रहती है। दूसरे शब्दों में यह अवस्था बाल्यावस्था को युवावस्था से जोड़ती है। इस अवस्था को व्यक्ति की जैव-सामाजिक स्थिति का संक्रमण काल कहते है क्योंकि इस दौरान बालक न तो बालक रहता है और न ही युवा होता है ।
  • जर्सील्ड के अनुसार “किशोरावस्था वह अवस्था है जिसमें एक विकासशील व्यक्ति बाल्यावस्था से परिपक्वावस्था की ओर बढ़ता है।” आइजनेक व साथियों के अनुसार “किशोरावस्था यौवनागमन के बाद की वह अवस्था है, जिसमें व्यक्ति में आत्म उत्तरदायित्व की भावना स्थापित होती है।” अर्थात् बाल्यावस्था को किशोरावस्था से जोड़ने वाली कड़ी यौवनारम्भ है। किशोरावस्था विकास की वह अद्भुत अवस्था है जिसमें बालक को न तो बालक कह सकते हैं और न ही युवा । इस अवस्था में बालक-बालिकाओं के दैहिक परिवर्तन वयस्कावस्था की दिशा में होते हैं एवं बाल्यावस्था के व्यवहार और रुचियों का स्थान युवोचित व्यवहार और रुचियाँ ले रही होती हैं । किशोरावस्था के प्रारम्भ होने तथा समाप्त होने का समय भिन्न-भिन्न होता है। लड़कियों में यह अवस्था 10-11 वर्ष से प्रारम्भ होकर 17-18 वर्ष तक बनी रहती है तो लड़कों में 13-14 वर्ष से प्रारम्भ होकर 21 वर्ष तक बनी रहती है। लैंगिक परिपक्वता अधिकांश लड़कियों में 12-14 वर्ष के बीच जबकि लड़को में लगभग 1-2 साल बाद यानि कि 14-16 वर्ष के बीच होती है। इस समय जननांगों का विकास होता है जिन्हें प्राथमिक या मुख्य लैंगिक लक्षण कहते हैं।
  • कुछ समय पूर्व तक किशोरावस्था का प्रारम्भ व्यक्ति के लैंगिक रुप से परिपक्व होने पर और अंत 21 वर्ष में माना जाता था । किन्तु हाल के अध्ययनों से पता चला है कि शुरु के वर्षों का व्यवहार और अभिवृत्तियाँ बाद के वर्षों के व्यवहार और अभिवृत्तियों से बहुत ही भिन्न होती हैं । फलतः किशोरावस्था की अवधि को पूर्व एवं उत्तर किशोरावस्था में बाँटा गया है। इन अवस्थाओं में भिन्नता का अध्ययन हम विविध शारीरिक, यौन, मानसिक, सामाजिक एवं सांवेगिक परिवर्तनों के आधार पर निम्न के अन्तर्गत करेंगे :–

1. यौवनारम्भ
2. पूर्व किशोरावस्था
3. उत्तर किशोरावस्था

1. यौवनारम्भ:

  • यह यौन विकास का आरम्भिक काल है जिसमें अलिंगता समाप्त होकर लिंगता आ जाती है। इस काल में अनेक जैव-रासायनिक (Biochemical) एवं मनोवैज्ञानिक (Psychological) परिवर्तन होते हैं। यह अवस्था बाल्यावस्था की समाप्ति से कुछ पहले शुरू होती है और किशोरावस्था आरम्भ होने के कुछ बाद तक चलती है । यौवनारम्भ को कभी-कभी प्राक्किशोरावस्था कहते हैं और इसके उत्तर भाग को पूर्व किशोरावस्था ।
  • यौवनारम्भ वह अवस्था है जिसमें शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन तेजी से होते हैं। इसमें बालोचित शरीर, जीवन के प्रति बालोचित दृष्टिकोण और बालोचित व्यवहार पीछे छूट जाते हैं और उनकी जगह परिपक्व शरीर, बदली हुई अभिवृत्तियाँ और नये प्रकार का व्यवहार ले लेते हैं। लेकिन ये द्रुत परिवर्तन उलझन, असुरक्षा की भावनाएँ और अनेक व्यक्तियों में प्रतिकूल व्यवहार भी पैदा कर देते हैं । यौवनारम्भ को कभी-कभी नकारात्मक दशा भी कहा जाता है। “दशा” कहने से तात्पर्य है कि पूरी आयु में यह एक छोटी सी अवधि है, और ‘नकारात्मक’ कहने का अर्थ है कि बालक जीवन के प्रति एक प्रतिकूल अभिवृत्ति अपना लेता है या फिर पहले से विकसित कुछ अच्छे गुणों का निराकरण कर रहा होता है । यौवनारम्भ में होने वाले परिवर्तन एक दिन या एक रात में नहीं होते हैं बल्कि दो से चार वर्ष तक चलते रहते हैं।
  • यौवनारम्भ लड़कियों में 9-10 वर्ष की आयु से लेकर मासिक धर्म की शुरुआत ( 13-14 वर्ष) तक का काल है। लड़कों में यौवनारम्भ लगभग 12वें वर्ष से शुरु होकर प्रथम स्वप्नदोष (14-15 वर्ष) तक रहता है। यौवन विकास, आरम्भ होने के बाद भी एक निश्चित गति से कुछ वर्षों तक चलता है, जब तक कि पूर्ण जनन परिपक्वता (Reproductive maturity) प्राप्त नहीं हो जाती है। यह लगभग 13 वर्ष से लेकर 20-21 वर्ष तक का काल है। इसे किशोरावस्था या यौवनावस्था कहते हैं ।

2. पूर्व किशोरावस्था ( Early Adolescence) :

  • पूर्व किशोरावस्था तब शुरू होती है जब व्यक्ति लैंगिक दृष्टि से परिपक्व हो जाता है। यह अवस्था 12-13 वर्ष से लेकर 16-17 वर्ष तक रहती है । लड़कियों में यह अवस्था 13 वर्ष की आयु से प्रारम्भ होती है तथा लड़कों में लगभग 1 वर्ष बाद यानि कि 14वें वर्ष में प्रारम्भ होती है। इसी तरह लड़के, लड़कियों से लगभग 1 वर्ष बाद परिपक्व होते हैं । फलतः वे अपनी आयु के लिहाज से लड़कियों की अपेक्षा अधिक अपरिपक्व लगते हैं। इस अवस्था के दौरान किशोरों में निम्न परिवर्तन देखे जा सकते है :-
    (1) यौवनारम्भ में होने वाले जननेन्द्रियों के परिवर्तन यानि कि प्राथमिक या मुख्य लैंगिक लक्षणों (Primary sex characteristics) के बाद लड़कों व लड़कियों में द्वितीयक या गौण लैंगिक लक्षणों (Secondary sex charactistics) का विकास प्रारम्भ हो जाता है।
    (2) अन्तः स्त्रावी तंत्र की तीव्र सक्रियता के परिणाम स्वरूप होने वाले तीव्र शारीरिक, सामाजिक व मानसिक परिवर्तनों से नवकिशोर सामंजस्य नहीं बैठा पाता तथा अत्यधिक तनाव की स्थिति रहता है। किशोर बहुत भावुक होते हैं तथा इनमें पल-पल में अत्यधिक उत्साह और गंभीर निराशा देखी जा सकती है।
    ( 3 ) नवकिशोर इस समय दुविधाजनक स्थिति में होता है क्योंकि यदि वह बालकों जैसा व्यवहार करता है तो कहा जाता है कि वह बच्चा नहीं है और बड़ों जैसा व्यवहार करता है तो कहा जाता है कि अभी वह युवा (Adult) नहीं हुआ है।
    (4) इस आयु में नवकिशोर का अपने माता-पिता, शिक्षक एवं दोस्तों से अनेक बार संघर्ष हो जाता है, उसकी संवेगशीलता अत्यधिक बढ़ जाती है तथा उनके साथ रहना या काम करना मुश्किल हो जाता है। अतः इसे “तूफान और तनाव ” की आयु भी कहते हैं ।

3. उत्तर किशोरावस्था ( Late Adolescence) :

  • उत्तर किशोरावस्था विकास की वह अवस्था है जो 16-17 वर्ष से प्रारम्भ होकर 20-21 वर्ष तक बनी रहती है । यह भी पूर्व किशोरावस्था की भांति संक्रमण काल की अवस्था है। नवकिशोर द्वारा पूर्व किशोरावस्था में युवा की स्थिति से और व्यवहार में युवा के स् से जो समायोजन शुरू हुए होते हैं, वे इस काल में पूरे हो जाते हैं। इस अवस्था में –
    (1) किशोर के व्यवहार में काफी स्थिरता आने लगती है, अर्थात् वे बड़ों जैसा व्यवहार करने लगते हैं। उनके कपड़ों, रुचि (Interests) व मित्रता आदि में स्थिरता आ जाती है।
    (2) बड़े किशोर समस्याओं को समझकर सुलझाने लगते हैं एवं सामाजिक परिस्थितियों से बहुत अच्छा समायोजन कर लेते हैं।
    (3) किशोर प्रत्येक बात को वैज्ञानिक स्वरूप में देखता – परखता है, तर्क-वितर्क करता है, तथा पुराने रीति-रिवाजों व रूढ़ियों को अपनाने से इन्कार करता है । इस प्रकार किशोर में परिपाटियों का अंधानुकरण करने के बजाय स्वाग्रहिता (Self acceptance) की भावनाएँ जन्म ले लेती हैं।
    (4) किशोर स्वतंत्र निर्णय लेने लगते हैं तथा इनके क्रिया-कलापों पर बड़े-बूढ़ों के अंकुश कम हो जाते हैं।
    (5) विविध संवेगों पर नियन्त्रण करने लगते हैं ।
    (6) सामाजिक अनुभवों के आधार पर बड़े किशोरों का ध्यान अब दिवास्वप्नों में कम हो जाता है तथा उनका दृष्टिकोण यथार्थवादी हो जाता है।
    (7) उचित समझने पर वे अपने से बड़ों के पहनावे, बातचीत व कार्य करने के तौर-तरीकों तथा आदतों का अनुकरण करने लगते हैं ।
    (8) किशोर समाज में स्वयं का एक स्वतंत्र अस्तित्व देखने लगता है।
    इस प्रकार उत्तर किशोरावस्था के किशोर को नवयुवक व किशोरी को नवयुवती कहा जाता है । यौवनारम्भ एवं किशोरावस्था के दौरान होने वाले विविध शारीरिक, यौन, सामाजिक, मानसिक व संवेगात्मक परिवर्तनों का विस्तृत अध्ययन आप पुस्तक के अगले अध्यायों में करेंगे।

परिपक्वता – पूर्व व पश्च् (Early and late maturity) :

  • आपकी कक्षा में पढ़ने वाले सभी सहपाठी लगभग समान उम्र के अर्थात् समवयस्क होंगे। आपने देखा होगा कि समान लिंग एवं समान उम्र के होते हुए भी कक्षा में कुछ बालक औसत बालकों से कद में छोटे तथा बचपना लिये हुए होते हैं जबकि कुछ बालक औसत बालकों से देखने में बड़े तथा व्यवहार में परिपक्वता लिये हुए होते हैं। ऐसा इन बालकों में मुख्य रुप से अंतः स्त्रावी ग्रंथियों की सक्रियता में भा के कारण होता है जो कि इन परिवर्तनों के लिये उत्तरदायी हैं ।
  • जिन किशोर-किशोरियों में वृद्धि स्फुरण (Growth spurt) की अवस्था एवं लैंगिक लक्षण औसत आयु के पूर्व दिखाई देने लगें तथा इनकी अधिकतम वृद्धि व विकास तथा लैंगिक परिपक्वता भी औसत आयु के पहले पूर्ण हो जाये तो इन्हें पूर्व परिपक्व (Early maturer) किशोर कहते हैं। इसके विपरीत अगर वृद्धि स्फुरण एवं लैंगिक लक्षणों का विकास औसत आयु के बाद प्रारम्भ हो तथा देर से पूर्ण हो तो इन्हें पश्च् परिपक्व ( Late maturer ) किशोर कहते हैं। इस प्रकार होने वाले परिपाक की प्रक्रिया को पूर्व परिपक्वता (Early maturity) तथा पश्च् परिपक्वता ( Late maturity) कहते हैं।
  • औसत समय से पूर्व परिपक्व होने वाले किशोरों का बाल्यकाल छोटा होता है तथा उस पर समय से पूर्व ही विविध जिम्मेदारियों का भार पड़ जाता है । विविध अध्ययनों में देखा गया है कि शीघ्र परिपक्व होने वाले किशोर अधिक आत्मविश्वासी तथा सामाजिक मानदण्डों के अनुरूप व्यवहार करने वाले होते हैं। जिन बालकों में परिपाक देर से शुरू होता है वे प्रायः परिपाक के शुरू हो जाने के बाद औसत बालक की अपेक्षा तेजी से परिपक्व होते हैं। अतः इनकी वृद्धि प्रायः अनियमित एवं असंयमित होती है। ये बालक अधिक बेचैन और ऐसा व्यवहार करने वाले होते हैं जो दूसरों का ध्यान आकर्षित करें। वे अधिक बातूनी, कम लोकप्रिय, कम नेतृत्व गुण वाले होते हैं । ये बालक अनुपयुक्तता की भावना, ऋणात्मक आत्म प्रत्यय, तिरस्कृत तथा आश्रितता की भावनाओं वाले होते हैं। इनमें आत्म नियंत्रण और उत्तरदायित्व की कमी भी होती है तथा वे दूसरों के समर्थन और मदद के आकांक्षी होते हैं। देर से परिपक्व होने वाले बालक अपराध भावना, हीनता, विषाद में घिरे रहने वाले, चिंतित तथा सहानुभूति प्राप्त करने वाले होते हैं।
  • बालकों में परिपक्व होने की आयु के साथ-साथ परिपक्वता की रफ्तार में भी अन्तर पाये जाते हैं । तेजी से परिपक्व (Fast maturers) होने वाले बालकों में द्रुत वृद्धि के अधिक बड़े स्फुरण पाये जाते हैं। उसके त्वरण एवं बन्द होने के समय एकाएक आते हैं और उनका आकार-प्रकार बड़ी जल्दी वयस्क के समान हो जाता है। उनकी जननेन्द्रियों एवं गौण लैंगिक लक्षणों का विकास जल्दी हो जाता है और अस्थियों का विकास औसत समय से पूर्व हो जाता है। इसके विपरीत धीरे-धीरे परिपक्व (Slow maturers) होने वालों में त्वरण की अवधि एवं तीव्रता कम होती है, उनकी वृद्धि एक समान और क्रमिक होती है तथा अधिक समय तक होती रहती है। उनकी जननेन्द्रियों, गौण लैंगिक लक्षणों एवं अस्थियों का विकास भी देर से होता है।
  • इस प्रकार किशोरावस्था जीवन चक्र की अनुपम एवं महत्त्वपूर्ण अवस्था है। इस काल में शैशवावस्था तथा बाल्यावस्था के दौरान शुरु हुए विविध प्रकार के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक आदि विकास अपनी परिपक्वता को प्राप्त कर लेते हैं । किशोरावस्था के इन विशिष्टि गुणों के बारे में आप अगले अध्यायों में पढेंगे।

अभिवृद्धि व विकास को प्रभावित करने वाले कारकः

  • वृद्धि व विकास को मुख्यतया दो कारक अनुवांशिकता एवं वातावरण प्रभावित करते हैं।
  • अनुवांशिकताः बालक जन्म के समय माता व पिता की विविध विशेषताओं के साथ पैदा होता है । इन अनुवांशिक विशेषताओं का उसकी वृद्धि व विकास पर गहरा प्रभाव पड़ता है। शिशु अपने माता व पिता जैसी कद-काठी, व्यवहार, स्वभाव, बुद्धि व व्यक्तित्व वाला बनता है । वह कुछ गुण माता व कुछ गुण पिता से प्राप्त करता है, जैसे लम्बे पिता व छोटी माँ का एक बालक लम्बा व एक बालक छोटा हो सकता है या दानों लम्बे या दोनों छोटे हो सकते हैं।
  • वातावरणः बालक सदैव किसी न किसी वातावरण में रहता है जिसमें उसका विकास होता है ।
  • वातावरण के अन्तर्गत वे सभी परिस्थितियाँ आती हैं जो प्राणी के व्यवहार व उसके विकास को गर्भावस्था से लेकर जीवन पर्यन्त प्रभावित करती हैं। वातावरण दो प्रकार का होता है:

1. प्राकृतिक वातावरण (Natural Environment)
2. सामाजिक वातावरण (Social Environment)

  1. प्राकृतिक वातावरण में पृथ्वी के सभी जीव जन्तु व भौतिक परिस्थितियाँ सम्मिलित हैं जिनके सम्पर्क में मनुष्य आता है। जन्म से पूर्व माँ के गर्भ का वातावरण बालक के विकास को प्रभावित करता है । यदि माँ की शारीरिक व मानसिक अवस्था ठीक नहीं होगी तो उसका प्रभाव बालक पर पड़ेगा। जन्म के पश्चात् शिशु जलवायु, भोजन, स्वयं का पोषण व स्वास्थ्य स्तर, घर, भौतिक सुविधाएँ इत्यादि के सम्पर्क में आता है। बालक के समुचित विकास लिये सन्तुलित आहार, उत्तम स्वास्थ्य, अनुरूप जलवायु व अन्य भौतिक सुविधाएँ जैसे हवा, पानी, पेड़ पौधे जानवर, घर आदि आवश्यक हैं।
  2. सामाजिक वातावरण: यह वह वातावरण है जिसमें बालक का लालन पालन, शिक्षा तथा विकास होता है । सामाजिक वातावरण में निम्नलिखित को सम्मिलित किया जा सकता है।
    i. पारिवारिक वातावरण ( Family environment) : बालक के विकास पर उसके परिवार के आकार, संरचना, आय, परम्पराओं आदि का प्रभाव पड़ता है। बालक के विकास पर माता, पिता एवं अन्य पारिवारिक सदस्यों के शैक्षिक स्तर, अभिवृत्तियों (Attitude), मार्गदर्शन की प्रणाली, अनुशासन व्यवस्था एवं अन्तः क्रियाओं का गहरा प्रभाव पड़ता है।
    ii. शैक्षणिक वातावरण (School environment) : बालक की अध्यापकों व सहपाठियों से अन्तःक्रियाएँ एवं स्कूल का वातावरण, नियम, कानून इत्यादि उसके विकास को प्रभावित करते हैं क्योंकि वह दिन में 6-8 घण्टे स्कूल में ही व्यतीत करता है साथ ही साथ गुरूजन के आदर्श व संगी-साथी बालक के मन पर अमिट छाप छोड़ते हैं।
    iii. सामुदायिक वातावरण (Community environment) : सामुदायिक वातावरण से तात्पर्य सम्पूर्ण समाज से है जिसके रहन-सहन, खान-पान, भाषा तथा रीति रिवाज बालक के विकास को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिये उत्तरी भारत में पलने वाला बालक हिन्दी भाषी एवं गेहूँ की रोटी व सब्जी खाने वाला होगा जबकि दक्षिणी भारत में पलने वाला बालक क्षेत्र विशेष की भाषा जैसे कन्नड़, तेलगु, तमिल आदि बोलने वाला होगा तथा साम्भर भात खायेगा । इसी प्रकार ये बालक भिन्न-भिन्न रीति रिवाजों को मानेंगे। यदि कोई उत्तर भारतीय परिवार दक्षिण में जाकर निवास करे तो उनका बालक अपने पारिवारिक भोजन व भाषा के साथ-साथ दक्षिण भारत के व्यंजन व भाषा भी अपना लेगा ।
    iv. पास पड़ौस (Neighbourhood) : बालक के विकास पर पास-पड़ौस में रहने वाले परिवार एवं मित्रों का भी प्रभाव पड़ता हैं । यदि पड़ौसी के बालक अपशब्दों का प्रयोग करते हैं तो उसका असर दूसरे बालकों पर भी पड़ सकता हैं। इसी प्रकार यदि पड़ौस में बालक प्रतिभावान है तो उससे बालक प्रेरित होकर अपना व्यक्तित्व भी उज्जवल बना सकता है। इस उम्र में बालकों पर अपने हम उम्र मित्रों का प्रभाव अधिक पड़ता है ।

उपरोक्त लिखित कारको के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के विकास भी एक दूसरे को प्रभावित करते हैं जैसे जब तक शिशु की मांसपेशियाँ, हड्डियाँ व तन्त्रिकाएँ पर्याप्त विकसित नहीं होंगी तब तक वह विभिन्न गामक प्रतिक्रियाएँ जैसे बैठना, उठना, चलना, दौड़ना इत्यादि नहीं कर पायेगा ।

महत्त्वपूर्ण बिन्दु :—-

1. किशोरावस्था, बाल्यावस्था को युवावस्था से जोड़ने वाली अवस्था है ।
2. इस अवस्था में बालक-बालिकाओं के दैहिक परिवर्तन वयस्कावस्था की दिशा में होते हैं एवं बाल्यावस्था के व्यवहार और रुचियों का स्थान युवोचित व्यवहार और रुचियाँ ले लेती हैं।
3. लड़कियों में किशोरावस्था 10-11 वर्ष से प्रारम्भ होकर 17-18 वर्ष तक बनी रहती है तो लड़कों में 13-14 वर्ष से प्रारम्भ होकर 21 वर्ष तक बनी रहती है ।
4. लड़कियाँ 12वें से 14वें वर्ष के बीच तथा लड़के 1-2 साल बाद यानि कि 14 से 16 वर्ष के बीच लैंगिक रूप से परिपक्व होते हैं ।
5. यौवनारम्भ, बाल्यावस्था के अंत व किशोरावस्था के प्रारम्भ का काल है|
6. यौवनारम्भ लड़कियों में 9-10 वर्ष की आयु में प्रारम्भ होकर मासिक धर्म की शुरूआत तक जबकि लड़कों में यह 12वें वर्ष से शुरू होकर प्रथम स्वप्नदोष तक का काल है।
7. यौवनारम्भ के समय शारीरिक व मानसिक परिवर्तन तेजी से होते हैं। बालोचित शरीर, जीवन के प्रति बालोचित दृष्टिकोण व व्यवहार पीछे छूट जाते हैं और उनका स्थान परिपक्व शरीर, अभिवृत्तियाँ और व्यवहार ले लेते हैं।
8. पूर्व किशोरावस्था तब शुरू होती है जब किशोर लैंगिक दृष्टि से परिपक्व हो जाते हैं। यह लड़कियों में औसतन 13 वर्ष तथा लड़कों में 14वें वर्ष में प्रारम्भ होती है।
9. उत्तर किशोरावस्था 16-17 वर्ष से प्रारम्भ होकर 20-21 वर्ष तक बनी रहती है । इस समय किशोरों के व्यवहार में काफी स्थिरता आ जाती है।
10. जिन किशोर-किशोरियों में वृद्धि स्फुरण की अवस्था एवं लैंगिक लक्षण औसत आयु के पूर्व दिखाई देने लगें तथा इनकी अधिकतम वृद्धि व विकास तथा लैंगिक परिपक्वता भी औसत आयु के पहले पूर्ण हो जाए तो इन्हें पूर्व परिपक्व (Early maturers) किशोर कहते हैं। इसके विपरीत अगर वृद्धि स्फुरण एवं लैंगिक लक्षणों का विकास औसत आयु के बाद प्रारम्भ हो तथा देर से पूर्ण हो तो उन्हें पश्च् परिपक्व (Late maturer) किशोर कहते हैं ।
11. बालक के वृद्धिक्रम व सामाजिक व्यवहार पर उसकी लैंगिक परिपक्वता की आयु का प्रभाव देखा गया है।
12. बालकों में परिपक्व होने की आयु के साथ-साथ परिपक्वता की रफ्तार में भी अंतर पाये जाते हैं। 13. अनुवांशिकता व वातावरण, वृद्धि व विकास को प्रभावित करने वाले दो मुख्य कारक हैं 14. प्राकृतिक वातावरण जैसे गर्भावस्था में माँ का शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य, जलवायु, घर व अन्य भौतिक सुविधाएँ बालक के विकास को प्रभावित करती हैं।
15. सामाजिक वातावरण जैसे घर व पारिवारिक सदस्य, स्कूल, गुरूजन व सहपाठी तथा सामुदायिक वातावरण बालक के विकास को प्रभावित करते हैं ।

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