मानव वृद्धि और विकास | manav vriddhi avn vikas

मानव वृद्धि और विकास | manav vriddhi avn vikas

मानव वृद्धि एवं विकास की अवधारणा (Concept of Human Growth and Development)

manav vriddhi avn vikas

  • मानव विकास विज्ञान की वह शाखा है जो गर्भाधान से लेकर मृत्युपर्यन्त होने वाले विभिन्न परिवर्तनों का अध्ययन करती है । जीवन काल चाहे छोटा हो या लंबा, वह कुछ अवस्थाओं में बँटा होता है । मनुष्य का जीवन एक अवस्था से दूसरी अवस्था में वृद्धि एवं विकास करता हुआ आगे बढ़ता है तथा प्रत्येक अवस्था के कुछ मुख्य लक्षण या वैशिष्ट्य होते हैं जो उसे संगति, एकता और विलक्षणता प्रदान करते है ।
    वृद्धि (Growth) एवं विकास (Development) निरन्तर प्रवाहित होने वाली प्रक्रियाएँ हैं जो जन्म के पूर्व ही प्रारम्भ हो जाती हैं। गर्भावस्था से मृत्यु तक व्यक्ति में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। परिवर्तनों की इस शृंखला से पता चलता है कि व्यक्ति “बढ़ रहा है । वृद्धि से तात्पर्य शारीरिक कोशिकाओं एवं ऊतकों में होने वाले उन मात्रात्मक परिवर्तनों से है जिन्हें विविध यंत्रों से मापा जा सके। जैसे जन्म के तुरन्त पश्चात् शिशु का वजन 2 1⁄2 से 3 किलो तथा लम्बाई 50 से. मी. के लगभग होती है, साल भर में हुई वृद्धि के फलस्वरूप उसका वजन 9-10 किलो तथा लम्बाई 75 से.मी. के लगभग हो जाती है, एवं 18-20 वर्ष का होते-होते उसका वजन 55-65 किलो तथा लम्बाई 5-6 फुट तक हो जाती है। वजन को हम वजन तौलने की मशीन तथा लम्बाई को फीते या स्थिर पैमाने से माप सकते हैं ।
  • विकास से तात्पर्य व्यक्ति में होने वाले गुणात्मक परिवर्तनों से है। विकास से अभिप्राय व्यक्ति में होने वाले शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तनों की व्यवस्थित एवं संगतिपूर्ण, क्रमिक, प्रगतिशील श्रृंखला से है । यहाँ क्रमिक से तात्पर्य एक के बाद एक होने वाले तथा प्रगतिशील से तात्पर्य दिशात्मक (Directional) परिवर्तनों से है। जैसे एक नवजात शिशु उठना, बैठना, चलना, बोलना, खाना इत्यादि नहीं जानता है किन्तु जैसे-जैसे उसकी वृद्धि एवं विकास होता है वह ये सभी क्रियाएँ करना सीख लेता है। इस प्रकार से एक शिशु में होने वाला यह विकास प्रगतिपूर्ण परिवर्तनों का परिणाम है । बालक में विकास सम्बन्धी सभी प्रगतिपूर्ण परिवर्तन एक दूसरे से सम्बन्धित एवं क्रमबद्ध होते हैं। विकास में दो परस्पर मौलिक रूप से विरोधी प्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं जो आजीवन साथ-साथ चलती है । ये प्रक्रियाएँ हैं क्रम विकास या धनात्मक विकास (Progressive development) तथा अपक्षय विकास या क्रम -हास (Regressive development)। गर्भावस्था के प्रारम्भ से शिशु के जन्म एवं युवावस्था तक धनात्मक विकास होता है तो युवावस्था से प्रौढ़ावस्था व वृद्धावस्था के दौरान अपक्षय की प्रधानता रहती है जिसे वजन व चर्बी में गिरावट तथा शारीरिक कमजोरी से समझ सकते हैं।
  • विकास को मापने के लिये सर्वाधिक व्यापक और उपयोगी मानकों में से एक है हैविगहर्स्ट द्वारा विभिन्न आयु स्तरों के लिये तैयार की हुई “विकासोचित कार्यों” की तालिका । हैविगहर्स्ट के अनुसार “विकासोचित कार्य वह कार्य है जो व्यक्ति के जीवन में किसी अवस्था के आने पर या उससे कुछ पहले आता है, जिसको सफलता पूर्वक करने से व्यक्ति सुखी होता है और आगे के कार्यों को करने में सफल होता है तथा असफल होने पर वह दुःखी होता है और बाद के कार्यों में कठिनाई अनुभव करता है ।”
  • इनमें से कुछ कार्य जैसे बैठना, चलना, दौड़ना इत्यादि मुख्य रूप से शारीरिक परिपक्वता के फलस्वरूप होते हैं कुछ मुख्य रूप से समाज के सांस्कृतिक दबाव के कारण विकसित होते हैं जैसे पढ़ना, लिखना, सीखना एवं कुछ अन्य व्यक्ति के व्यक्तिगत आदर्शों और महत्त्वाकांक्षाओं के कारण पैदा होते हैं, जैसे कई व्यवसाय चुनना और उसकी तैयारी करना । फिर भी अधिकतर मामलों में विकासोचित कार्य इन तीनों के मिले-जुले फल होते हैं। जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में विकासोचित कार्यों के बारे में विस्तार से अगले अध्यायों में पढ़ेंगे।
  • आपने पढ़ा कि गर्भावस्था से शिशु के जन्म एवं वृद्धावस्था तक होने वाले परिवर्तन वृद्धि एवं विकास का परिणाम हैं। वृद्धि व विकास में मुख्य अन्तर निम्नानुसार हैं

वृद्धि और विकास में अन्तर

वृद्धि विकास
1. मात्रात्मक परिवर्तन
2. शारीरिक संरचनात्मक परिवर्तनों (structural) का बोध होता है।
3. केवल परिपक्वावस्था तक होती है ।
4. केवल रचनात्मक परिवर्तन होते है
गुणात्मक परिवर्तन
शारीरिक व मानसिक कार्यशील परिवर्तनों (functional) का बोध होता है ।
जीवन – पर्यन्त चलता रहता है।
परिवर्तन रचनात्मक एवं विनाशात्मक दोनों प्रकार के हो सकते हैं।

विकास की अवस्थाएँ (Stages of development) :

  • बालक का विकास जन्म से पहले ही प्रारम्भ हो जाता है तथा कुछ अवस्थाओं के द्वारा अग्रसर होता है। ये अवस्थाएँ विकास अवस्थाएँ कहलाती हैं । भिन्न-भिन्न आयु में विशिष्ट प्रकार के विकास होते हैं । यद्धपि विकास की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं (Periods) के बीच कोई ऐसी निश्चित रेखा नहीं है जो एक दूसरे को बिल्कुल अलग-अलग कर सके, फिर भी एक विशेष उम्र में होने वाले विकास को हम उस अवस्था से पहले और बाद की अवस्थाओं में होने वाले विकास से अलग (Distinguish) कर सकते हैं। एक विकास अवस्था दूसरी विकास अवस्था से प्रमुख लक्षणों के आधार पर अलग की जाती है। जब बालक का विकास प्रतिमान सामान्य होता है तब एक विकास अवस्था बालक को दूसरी विकास अवस्था के लिये तैयार करती है । बाल विकास की विभिन्न अवस्थाएँ निम्नानुसार हैं :
अवस्थाएं अवधि
1. गर्भकालीन अवस्था गर्भाधान से जन्म तक
2. शैशवावस्था
(अ) नवजात शैशवावस्था
(ब) शैशवावस्था
जन्म से 2 वर्ष तक
जन्म से 1 माह तक
तीसरे सप्ताह से 2 वर्ष तक
3. बाल्यावस्था
(अ) पूर्व बाल्यावस्था
(ब) उत्तर बाल्यावस्था
3-12 वर्ष
3-6 वर्ष तक
6-12 वर्ष तक
4. किशोरावस्था
(अ) वय:संधि (नव किशोरावस्था)
(ब) किशोरावस्था
(स) उत्तर किशोरावस्था
11-12 से 12-14 वर्ष तक
13 वर्ष से 17 वर्ष तक
17 वर्ष से 21 वर्ष तक
5. प्रौढ़ावस्था (पूर्व प्रौढ़ावस्था) 21 से 40 वर्ष तक
6. मध्यावस्था 40 से 60 वर्ष तक
7. उत्तर प्रौढ़ावस्था या वृद्धावस्था 60 वर्ष के बाद
8. मृत्यु एवं वियोग जीवन का अन्त

1. गर्भकालीन अवस्था (Prenatal period) :

  • यह अवस्था गर्भधारण से लेकर शिशु के जन्म तक की अवस्था है। यह अवस्था करीब 9 माह की होती है। इस अवस्था में वृद्धि एवं विकास सर्वाधिक तीव्र गति से होता है। इस अवस्था की विकास प्रक्रियाओं को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से तीन भागों में बाँटा गया है :
    (i) बीजावस्था (Germinal period) : यह गर्भधारण से दो सप्ताह तक की अवस्था है । इसअवधि में डिंब आकार में लगभग एक जैसा रहता है लेकिन यह तीव्र गति से विभाजित होता रहता है जिससे अनेक कोशिकाओं का एक गोलाकार झुंड बन जाता है। लगभग दस दिन तक उसे कोई आहार प्राप्त नहीं होता किन्तु तत्पश्चात् यह गर्भाशय की दीवार से जुड़ जाता है और माँ से आहार प्राप्त करने लगता है।
    (ii) भ्रूणावस्था (Embryonic period) : यह दो सप्ताह से आठ सप्ताह तक की अवस्था है। इस अवस्था में जीव भ्रूण कहलाता है। इस अवस्था में शरीर के मुख्य अंगों का निर्माण होता है। भ्रूण की तीन परतें – बाहरी परत, मध्य परत व आन्तरिक परत बन जाती है जिससे भविष्य में विभिन्न शारीरिक अंगों का विकास होता है ।
    (iii) गर्भस्थ शिशु की अवस्था (Foetus period) : यह आठ सप्ताह से जन्म तक की अवस्था है। भ्रूणावस्था में जिन अंगों का निर्माण होता है, इस अवस्था में उन्हीं अंगों का विकास होता है। इस अवस्था में गर्भस्थ शिशु के सभी प्रमुख अंग जैसे- हृदय, फेफड़े आदि कार्य करने लगते हैं और यदि सातवें महीने में गर्भस्थ शिशु जन्म भी ले ले तो भी वह विशेष देखभाल के बाद ही जीवित रह सकता है।

2. नवजात अवस्था (Neonatal period) :

  • यह अवस्था जन्म से 30 दिनों तक की अवस्था है। इस अवस्था में शिशु को नवजात शिशु कहते हैं। इस अवस्था में शिशु में कोई विशेष विकास नहीं होता है क्योंकि इस दौरान शिशु स्वयं को नये वातावरण में समायोजित करने में व्यस्त रहता है। यह नया वातावरण माँ के गर्भ की अपेक्षा भिन्न होता है। इस अवस्था के विषय में आपने नवजात शिशु की देखभाल अध्याय में विस्तार से पढ़ा है।

3. शैशवावस्था (Infancy ) :

  • यह अवस्था 1 माह से 2 वर्ष तक की अवस्था होती है। इस अवस्था के प्रारम्भ में बालक पूर्णतः असहाय होता है और अपनी आवश्यकताओं के लिये दूसरों पर निर्भर होता है किन्तु विकास के साथ-साथ उसकी मांसपेशियों पर नियंत्रण बढ़ता जाता है और वह धीरे-धीरे आत्मनिर्भर होता जाता है । फलस्वरूप वह बहुत कुछ आत्मनिर्भर हो जाता है तथा स्वयं खाना, चलना, खेलना, बोलना आदि क्रियाएँ करने लगता है ।

4. पूर्व बाल्यावस्था (Early childhood ) :

  • यह दो वर्ष से छः वर्ष तक की अवस्था है। इस अवस्था में बालक अपने चारों ओर के मनोवैज्ञानिक वातावरण पर नियंत्रण करना सीखता है तथा वह सामाजिक समायोजनों को सीखना भी प्रारम्भ करता है। इस अवस्था में बालक स्वयं अपने शरीर के ऊपर काम चलाऊ नियंत्रण प्राप्त कर चुकने के बाद अब अपने पर्यावरण की छानबीन करने के लिये तैयार हो चुका होता है । इस अवस्था के बालकों में जिज्ञासा (Curiosity) एवं समूह प्रवृत्ति आदि की विशेषताएँ पाई जाती हैं।

5. उत्तर बाल्यावस्था ( Late childhood ) :

  • यह अवस्था छ: वर्ष की आयु से प्रारम्भ होकर 11 से 12 वर्ष तक रहती है। इस अवस्था में यौन परिपक्वता तथा किशोरावस्था का उदय होता है। इस अवस्था की मुख्य विशेषता समाजीकरण है। बालक का अधिकांश समय स्कूल एवं मित्र मंडली में व्यतीत होता है तथा वह समूहों में खेलना पसंद करता है ।

6. किशोरावस्था (Adolescence) :

  • यह अवस्था 12 वर्ष से 21 वर्ष तक होती है। यह संक्राति की अवस्था है जिसमें बालक न तो बालक रहता है और न ही युवा होता है। यह बाल जीवन की अंतिम अवस्था है। कुछ लोग विकास की इस अवस्था को स्वर्ण आयु (Golden age) तो कुछ इसे तूफान व तनाव (Period of storm & stress) की अवस्था भी कहते हैं क्योंकि बालक इस अवस्था में होने वाले तीव्र शारीरिक व मानसिक परिवर्तनों से आसानी से सामंजस्य नहीं बैठा पाते हैं। इस अवस्था में बालकों में सामाजिकता एवं कामुकता संबंधित परिवर्तन विशेष रूप से होते हैं। इस अवस्था में कल्पना का बाहुल्य, समस्याओं का बाहुल्य तथा संवेगात्मक अस्थिरता जैसे लक्षण भी पाये जाते है।

7. युवावस्था (Adulthood) :

  • यह 21 से 40 वर्ष तक की अवस्था है । यह कर्त्तव्यों, उत्तरदायित्वों और उपलब्धियों की अवस्था है। व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों का तभी निर्वाह कर सकता है जब जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में उसका स्वस्थ समायोजन हो । स्वस्थ समायोजन की अवस्था में वह उपलब्धियों को प्राप्त कर सकता है।

8. प्रौढ़ावस्था (Middle age) :

  • यह 40 से 60 वर्ष तक की अवस्था है। किशोर वय की भांति यह भी संक्राति की अवस्था है, जिसके एक ओर तो स्फूर्तिवान युवावस्था है तो दूसरी तरफ क्षीणता लिये हुए वृद्धावस्था है। इस अवस्था का व्यक्ति पूर्ण मानसिक परिपक्वता लिये हुए स्थिर व शांत मनोवृत्ति वाला होता है। इस अवस्था में व्यक्ति अपनी उपलब्धियों के शिखर पर होता है एवं पिछले वर्षों के परिश्रम का सुफल भोगता है। इस अवस्था के प्रारम्भ और अन्त में कुछ शारीरिक परिवर्तन होते हैं। चालीस वर्ष की उम्र आते-आते व्यक्ति की जनन क्षमता में ह्रास होने लगता है व महिलाओं में रजोनिवृत्ति (Menopause) के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। इस अवस्था के अन्तिम पड़ाव पर व्यक्ति को अपने कार्यालयों से अनिवार्यतः सेवानिवृत्त होना पड़ता है।

9. वृद्धावस्था (Old age) :

  • वृद्धावस्था जीवन का अन्तिम पड़ाव है जो 60 वर्ष से मृत्युपर्यन्त होती है। यह शारीरिक व मानसिक ह्रास की अवस्था है जो धीमा या तीव्र हो सकता है। आयु की वृद्धि के साथ-साथ व्यक्ति की ताकत, स्फूर्ति और प्रतिक्रिया की रफ्तार कम होती जाती है। अनिवार्य सेवानिवृत्ति तथा बच्चों के बड़े हो जाने के कारण व्यक्ति अपने व्यावसायिक एवं पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुक्त होता है। इस अवस्था में व्यक्ति अपने गिरते हुए शारीरिक स्वास्थ्य, बदलते सामाजिक परिवेश तथा बच्चों व नाती-पोतों के मध्य पीढ़ी अन्तराल के साथ विभिन्न समायोजन करता है। कई बार ऐसा भी माना जाता है कि वृद्ध व्यक्ति अपनी दूसरी बाल्यावस्था में पहुँच गया है जिसमें उसे अपने हर कार्य के लिये अपने बच्चों पर निर्भर होना पड़ता है। सेवानिवृत्त दुर्बल एवं बीमार वृद्धों के लिये यह शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक एवं भावात्मक असुरक्षा की अवस्था होती है।
  • किशोरावस्था जो कि बाल्यावस्था को युवावस्था से जोड़ती है। आप सभी अभी इसी अवस्था में है अतः उपरोक्त वर्णित विभिन्न अवस्थाओं में से किशोरावस्था में होने वाले वृद्धि व विकास से अध्ययन प्रारम्भ करेंगें तथा इस अवस्था के विशिष्ठ गुणों के बारे में अगले अध्यायों में पढ़ेगें ।

महत्त्वपूर्ण बिन्दु :–

1. मानव विकास के अन्तर्गत गर्भाधान से लेकर मृत्युपर्यन्त होने वाले विभिन्न परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है ।
2. वृद्धि शारीरिक कोशिकाओं व ऊतकों में होने वाला मात्रात्मक एवं रचनात्मक परिवर्तन है।
3. विकास व्यक्ति में होने वाले गुणात्मक परिवर्तन हैं। यह शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तनों की व्यवस्थित, संगतिपूर्ण, क्रमिक एवं प्रगतिशील श्रृंखला है।
4. व्यक्ति में होने वाले विकास को ” हेविगहर्स्ट” द्वारा विभिन्न आयु स्तरों के लिये तैयार की गई विकासोचित कार्यों की सारिणी से माप सकते हैं।
5. बालक का विकास जन्म से पूर्व ही प्रारम्भ हो जाता है एवं मृत्युपर्यन्त चलता रहता है ।
6. गर्भकालीन अवस्था गर्भाधान से लेकर शिशु के जन्म तक तकरीबन 9 माह की होती है । 7. शिशु के जन्म से 30 दिनों तक की अवस्था नवजात अवस्था कहलाती है।
8. एक माह से 2 वर्ष तक शैशवावस्था में बालक कुछ-कुछ आत्मनिर्भर हो जाता है।
9. पूर्व बाल्यावस्था (2-6 वर्ष) में बालक जिज्ञासु प्रवृत्ति का होता है तथा स्वयं व वातावरण पर नियंत्रण व सामाजिक समायोजन सीखना प्रारम्भ करता है।
10. उत्तर बाल्यावस्था (6-12 वर्ष) का बालक सामाजिक प्राणी होता है व अधिकांश समय स्कूल व मित्र मंडली में बिताता है ।
11. किशोरवय (12 से 21 वर्ष) की अवस्था संक्राति काल की अवस्था है जिसमें बालक में शारीरिक, सामाजिक व संवेगात्मक परिवर्तन अतितीव्रता से होते है।
12. युवावस्था (21 से 40 वर्ष) कर्त्तव्यों, उत्तरदायित्वों एवं उपलब्धियों की अवस्था है ।
13. प्रौढ़ व्यक्ति शांत व स्थिर प्रकृति का तथा अपनी उपलब्धियों के चरम उत्कर्ष पर होता है । 14. शारीरिक स्वास्थ्य के अनुरूप वृद्धावस्था छोटी बड़ी या किसी-किसी में तो होती ही नहीं है ।
15. वृद्धावस्था शारीरिक व मानसिक क्षय की अवस्था है जिसमें व्यक्ति को विविध समायोजन करने पड़ते हैं ।

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