पारिस्थितिक संतुलन (Ecological balance in Hindi) क्या हैं ?

पारिस्थितिक संतुलन (Ecological balance)

Ecological balance in Hindi

  • पारिस्थितिक तंत्र पर मानव क्रियाओं के प्रभावों के वर्णन से स्पष्ट है कि मानवीय क्रियाएँ ही पारिस्थितिक तंत्र में असन्तुलन उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी हैं। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मानव वैज्ञानिक विकास को रोक दे और हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाएं । अपितु आवश्यकता इस बात की है कि मानवीय क्रियाओं और पर्यावरण के बीच सन्तुलन स्थापित किया जाए। वनों को नष्ट होने से बचाया जाए, वृक्षारोपण कर वन क्षेत्र में वृद्धि की जाए, प्रदूषण नियंत्रण के समुचित और प्रभावकारी उपाय किए जावें, पर्यावरण में असन्तुलन उत्पन्न करने वाली क्रियाओं पर नियंत्रण किया जावे, जिससे पारिस्थितिक तंत्र में सन्तुलन बना रहे और भावी पीढ़ी के भविष्य को सुरक्षित बनाया जा सके ।

(i) प्राकृतिक संतुलन –

  • संसार में विविध प्रकार के जीवधारी पाए जाते हैं। किसी भी पारिस्थितिकीय समुदाय में किसी भी प्राणी जाति की समष्टि का आकार तब तक स्थिर बना रहता है, जब तक कि कोई प्राकृतिक प्रकोप इसकी स्थिरता को भंग न कर देवें। इस स्थिरता को ही पारिस्थितिकी के क्षेत्र में, प्रकृति में संतुलन कहते हैं।
  • वर्तमान समय में सूखा, बाढ़, वर्षा की अनियमितता, भूकम्प इत्यादि प्रकृति में संतुलन नहीं होने के परिणाम है।

(ii) प्रकृति में संतुलन की व्यवस्था :-

  • प्रकृति में जैविक समुदाय तथा पर्यावरण के मध्य संतुलन करने हेतु निम्न व्यवस्थाएँ होती हैं-
  • (क) प्रतिस्पर्धा – जीवधारियों के मध्य प्रतिस्पर्धा उनकी आबादी को नियंत्रित करने में सहायक होती है । सामान्यतः पारिस्थितिक तंत्र में भोजन के स्रोत सीमित होते हैं । भोजन की प्राप्ति हेतु जीवधारियों में परस्पर संघर्ष होता है। परभक्षी (Predator), स्वयं के शिकार की समष्टि को नियंत्रित करता है। इसी तरह शिकार भी अपनी उपलब्धता के आधार पर परभक्षी की समष्टि को नियंत्रित करता है ।
  • (ख) पारिस्थितिक तंत्र / पारितंत्र :- पारिस्थितिक तंत्र के अजैविक तथा जैविक घटक परस्पर अंतर्सम्बन्धित रहते हुए तंत्र का संतुलन बनाए रखते हैं। ये जटिल संबंधों का इस प्रकार का जालक (Network) बनाते हैं, जो जनसंख्या की वृद्धि को नियंत्रित करता है । प्रत्येक प्राणी जाति अपनी जीवन शैली द्वारा एक कार्यात्मक छवि बनाती है, जिसे निकेत (Niche) कहते हैं। संक्षेप में निकेत किसी जाति की पारिस्थितिकीय भूमिका होती है तथा पारिस्थितिक तंत्रों के बीच ऊर्जा (Energy ) और पदार्थों के स्थानांतरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इस प्रकार प्रत्येक जाति अपनी ही कार्यशैली में पारिस्थितिक तंत्र को स्थायित्व/संतुलन प्रदान करती है । जाति पादप की हो अथवा प्राणी की, पारिस्थितिक तंत्र के लिए उसके कार्य महत्त्वपूर्ण होते हैं । प्रत्येक जाति खाद्य – जाल (Food-web) तथा ऊर्जा प्रवाह (Energy flow) के माध्यम से नैसर्गिक संतुलन बनाये रखती है। प्रत्येक उच्च क्रम का उपभोक्ता (Comsumer) अपने से निचले क्रम के जीवों का भक्षण करके जैव भार (Biomass) तथा संख्या के पिरामिड (Pyramid of numbers) को संतुलित रखकर जैव नियंत्रण के माध्यम से पारिस्थितिकीय व्यवस्था को स्वनियंत्रित प्रणाली का रूप देते हैं ।
  • (ग) व्यवहार कुछ जीवधारियों की जनसंख्या उनके व्यवहार के माध्यम से प्रभावित होती है –

(iii) प्राकृतिक संतुलन में अवरोध –

  • मानव ने अपने क्रियाकलापों द्वारा प्राकृतिक संतुलन में अत्यधिक अवरोध पैदा किया है। एक समय ऐसा भी था जब आस्ट्रेलिया महाद्वीप में खरगोशों का नामो निशान नहीं था । 19वीं शताब्दी में कुछ पर्यटक (Tourist) यहाँ पर अपने खरगोश लाए। क्योंकि आस्ट्रेलिया में खरगोश का भक्षण करने वाले प्राणी नहीं थे, फलस्वरूप वहाँ पर खरगोश की संख्या निरंतर रूप में तेजी के साथ बढ़ी, जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि खरगोशों ने वहाँ की कृषि – फसलों को समाप्त करना प्रारम्भ कर दिया। इसे व्यवस्थित करने हेतु वहाँ पर लोमड़ियों (Foxes) का प्रवेश करवाया गया, जिन्होंने सफलतापूर्वक वहाँ पर खरगोशों की संख्या को नियंत्रित किया । तत्पश्चात ये लोमड़ियाँ भी वहाँ पर आबाद पक्षियों के साथ-साथ अन्य प्राणियों का शिकार करने लगी। इससे इस तथ्य को बल मिलता है कि प्रकृति में संतुलन की प्रक्रिया ‘स्वतः नियंत्रित’ होती है।

(iv) कुंजी – शिला (की स्टोन) जातियों की प्रकृति संतुलन में भूमिका –

  • “कुंजी – शिला जातियाँ, ऐसी जातियाँ हैं जो किसी क्षेत्र विशेष के पारितंत्र (Ecosystem) को सर्वाधिक प्रभावित करती हैं।” की-स्टोन जातियाँ पारितंत्र को स्थायित्व (Stability ) प्रदान करती हैं तथा इनके अभाव में ऐसे बदलाव होते हैं, जिनसे पारितंत्र का स्वरूप एकदम परिवर्तित हो जाता है तथा इसके समाप्त होने की संभावना भी बनी रहती है । इस प्रकार पारितंत्र में की-स्टोन जातियों की भूमिका अत्यधिक कारगर होती है ।
  • प्रमुख परभक्षी (Predator) जातियाँ की-स्टोन जातियाँ हैं तथा ये पारिस्थितिक समुदाय (Ecological community) पर अपना प्रभाव दृष्टिगोचर करती है। परभक्षी की संख्या में बढ़ोतरी इस बात का सूचक होती है कि ये शिकार (Prey) जातियों को अपने भोजन के रूप में उपयोग करते हुए उनकी संख्या को सीमित बनाए रखें। परभक्षी जातियों के अभाव में शिकार जातियों की संख्या में अभिवृद्धि होगी तथा इस स्थिति में सारे पारिस्थितिक तंत्र के नष्ट होने की संभावना बनी रहती है। इस प्रकार की – स्टोन जातियाँ ही समुदाय में अन्य जातियों की संख्या को निर्धारित करती हैं ।
  • हाथी एक की- स्टोन जाति है । यह घास के मैदानों में जीवन यापन करता है । हाथी शाकाहारी प्राणी है, लेकिन घास का उपयोग अपने भोजन हेतु नहीं करता है। इसका प्रमुख भोजन झाड़ियाँ एवं वृक्ष होते हैं, फलस्वरूप वृक्ष तथा झाड़ियों में अभिवृद्धि नहीं हो पाती है, परिणामस्वरूप घास के मैदानों का अस्तित्व बना रहता है अर्थात् यह घास के मैदान को वन में परिवर्तित होने से रोकता है।
    इसी प्रकार मेंढ़क भी एक की- स्टोन जाति है, जो मच्छरों एवं कीट पतंगों को खाकर उनकी संख्या को सीमित रखती है। मेंढ़क की अनुपस्थिति में निःसंदेह इनकी संख्या में बढ़ोतरी होगी तथा जीवधारियों का जीवन कष्टपूर्ण हो जायेगा ।
    इस प्रकार की – स्टोन जातियाँ प्रकृति में संतुलन को बनाए रखती हैं तथा इसी में मनुष्य का हित भी है ।

(v) प्रकृति संतुलन में वन्य जीवों का योगदान –

  • वन्य जीव प्रकृति संतुलन में अपना अलग से विशिष्ट स्थान एवं महत्त्व रखते हैं। वन्य जीव प्रकृति में पारिस्थितिकीय संतुलन बनाये रखते हैं तथा एक बार भी संतुलन में व्यवधान आ जाये तो उसका प्रत्यक्ष प्रभाव मानव जाति पर दिखाई पड़ता है। उदाहरणार्थ यदि शिकारियों के द्वारा मांसाहारी (Carnivorous) वन्य जीवों को समाप्त कर दिया जाये तो शाकाहारी (Herbivorous) वन्य जीवों की संख्या में इतनी अकल्पनीय बेहताशा वृद्धि हो जायेगी कि वे जंगल के सभी पेड़-पौधों को चट कर जायेंगे तथा अंततः जंगलों का नामोनिशान भी शेष नहीं रहेगा । फलस्वरूप वर्षा अल्प होगी तथा वर्षा के अभाव में फसलें अच्छी नहीं होगी, फलस्वरूप मनुष्य को आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ेगा। इस प्रकार यह तथ्य उजागर होता है कि वन्य जीव प्रकृति संतुलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं ।
  • निष्कर्ष – उपर्युक्त विवरण इस बात को इंगित करता है कि प्रमुख रूप से की- स्टोन जातियाँ तथा वन्य-जीव प्रकृति संतुलन में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान निर्धारित करते हैं। इनके संरक्षण से पर्यावरण में संतुलन स्थापित होता है ।

महत्त्वपूर्ण बिन्दु –

  1. पारिस्थितिकी शब्द की रचना ग्रीक भाषा के Oikos अर्थात् आवास और Logos अर्थात् अध्ययन को मिलाकर की गई।
  2. पारिस्थितिक तंत्र जीव और पर्यावरण की अन्तःप्रक्रिया का प्रतिफल है। पारिस्थितिक तंत्र के प्रवर्तक ए. जी. टांसले हैं ।
  3. पारिस्थितिक तंत्र वह तंत्र है, जिसमें पर्यावरण के समस्त जैविक और अजैविक कारक अन्तःसम्बन्धित होते हैं ।
  4. पारिस्थितिक तंत्र प्राकृतिक तथा मानव निर्मित हो सकता है । पारिस्थितिक तंत्र की संरचना पर्यावरण के जैविक और अजैविक घटकों की पारस्परिक अन्तः क्रियाओं द्वारा होती है ।
  5. एक पारिस्थितिक तंत्र के जैविक और अजैविक घटकों को क्रियाशील रहने के लिये ऊर्जा की आवश्यकता होती है, और यही ऊर्जा उस पारिस्थितिक तंत्र को गतिशील बनाये रखती है । इस प्रक्रिया को ऊर्जा प्रवाह कहते हैं।
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